हमारे लिए ऊर्जा के परम-स्रोत...

Wednesday, 29 May 2013

देखती रह जाती हूँ रोज


ज्येष्ठ माह की घनी दुपहरी में
मेरे घर के सामने
स्थित पार्क में
खुले आसमान के नीचे
घास में से
पेड़ों की सूखी पत्तियां बीनती
वो नाजुक और कमसिन लड़कियाँ
अपने कार्य में व्यस्त
शायद मौसम से बेखबर
आपस में बतियाते हुए
खिलखिलाकर हंसती रहती हैं
और मैं देखती हूँ
आसमान में
सूरज को चमकते
आग बरसाते हुए
और देखती रह जाती हूँ रोज
उन्हें आग के दरिया से
हंसकर गुजरते हुए!

Sunday, 26 May 2013

हम सभी के भीतर कुएं हैं





हम सभी के भीतर कुएं हैं-
अंधेरे कुएं-
निराशाओं के
संभावनाओं के
आशाओं के
समय-समय पर
हम उतरते हैं उनमें
और ले आते हैं भरकर
थोड़ी सी उदासी
थोड़ी सी निराशा 
थोड़ी सी खुशी 
थोड़ी सी आशा ∙ 

Saturday, 25 May 2013




जीवन का चक्रव्यूह

हम सब
जीवन के
चक्रव्यूह में फँसे हैं
अभिमन्यु की तरह
जो चक्रव्यूह में
घुसना तो जानते हैं
पर निकलना नहीं
और निकलने के
प्रयास में ही
निकल जाती है
सारी उम्र
सारी जिंदगी ∙

Wednesday, 22 May 2013





मनुष्य बन गया है पाषाण

पत्थरों में
खुद के इतिहास को
तलाशते-तलाशते
मनुष्य बन गया है
स्वयं पाषाण
दिखाई नहीं देतीं
अब उसे मानवीय संवेदनाएं
सीने में धड़कता दिल
धमनियों में दौड़ता खून
शरीर में बसे प्राण

पत्थरों में
खुद के इतिहास को
तलाशते-तलाशते
मनुष्य बन गया है
स्वयं पाषाण 

Saturday, 18 May 2013


आदमी हर जगह एक सा है

राह नहीं कोई
अनजानी-सी
बस्ती लगीं सब
मुझे पहचानी-सी

मैंने देखा
अक्सर आदमी
हर जगह
एक सा बसता है
बाहर-बाहर
फरत करता
अंदर-अंदर
प्रेम को
                        तरसता है              

Friday, 17 May 2013





झूँठी आस

तुम अपने 
कोमल मन में
लगाए बैठे हो
न जाने
कितनी ही
झूँठी आस
पर नहीं मिल सकेगा
तुम्हें वो सब कुछ
कभी मेरे पास
क्योंकि
मेरे पास तो है
सिर्फ़ दर्दों का
एक काफ़िला
खरोंचा हुआ प्यार
लहुलुहान ह्रदय
और
                           टूटी हुई-सी प्यास

Tuesday, 14 May 2013

पानी पर लकीरें





जीवन की स्याह रातों में
पूरी-पूरी रात जाग
झोंक दिया खुद को
पूरी तरह से,
खड़े करती रही
आकांक्षाओं के महल
और बुनती रही सुनहरे ख्वाब
चुपचाप सह लिया सब कुछ
जो भी कहा सबने अच्छा-खराब 
पर यह क्या
कि एकाएक ही
वक्त की आँधी में
बिखर गया सब कुछ
तिनका-तिनका होकर
और लगा ऐसे
जैसे मैं खींचती रही
ता-उम्र
पानी पर लकीरें ∙

Monday, 13 May 2013



अपने सूरज को जला लो


इससे पहले कि अंधेरा
मार डाले
तुम्हारी आत्मा को
और
लील जाए तुम्हे
पूरे का पूरा
तुम
अपने अंदर के
सूरज को जला लो.

Friday, 10 May 2013







परिवर्तन-3

पहले राह चलते 
कहीं सूनसान में कोई दीख जाता था
तो मन को तसल्ली होती थी
कि चलो एक से दो हो गए
अब कोई किसी बात का डर नहीं

अब राह चलते कोई दीख जाता है
तो प्राण सूख जाते हैं
और यही डर बना रहता है
कि पता नहीं कब क्या हो जाए
और कदम खुद--खुद
तेज उठ पडते हैं मंजिल की ओर

सोचती हूँ-
अब हमें जितना डर आदमी से लगता है
शायद ही उतना डर
अब और किसी से लगता हो           
           
(कविता-संग्रह "एक किरण उजाला" से)





परिवर्तन-2

पहले किसी पर उपकार कर दो 
तो वह अहसान मानता था 
और उस उपकार का ऋण चुकाता था

फिर आदमी ने अहसान मानना छोड़ दिया 
और काम निकलते ही 
पहचानना बंद कर दिया

और अब तो यह समय आ गया है 
कि आप जिसके साथ उपकार करते हैं 
वो आपका शत्रु बन जाता है 
और आपकी ही जड़ें काटता है

(कविता-संग्रह "एक किरण उजाला" से)

Wednesday, 8 May 2013





परिवर्तन -1

पहले किसी आदमी को
अकेली जाती लडकी दिख जाती थी
तो वो पूछ्ता था-
कहाँ जाओगी बहन?

फिर एक समय ऐसा भी आया
जब वो पूछ्ने लगा-
कहाँ जाओगी मेरी जान?

पर अब तो वो समय गया है
कि वो उससे कुछ नहीं पूछता
बस, बलपूर्वक उसे साथ ले जाता है
और फिर कुछ ही देर में
उसके ज़िस्मों-दिमाग पर
अपनी क्रूरता के कुछ निशान
और कुछ जख़्म 
हमेशा-हमेशा के लिये छोड़ जाता है

हमारे असभ्य से सभ्य होने की
बस यही कहानी है:
नारी आज़ भी अबला है 
आज़ भी उसके आँचल में दूध
और आँखों में पानी है...

Friday, 3 May 2013






आज मैं सुप्रसिद्ध कवि और व्यंग्यकार श्री रवींद्रनाथ त्यागी की कविताएँ पढ़ रही थी, उनकी एक कविता उठते कदम की यह पंक्तियाँ आपसे साझा करना  चाहती हूँ; इसी कामना के साथ कि आप अपने कार्यक्षेत्र में सदैव इन पंक्तियों को ध्यान में रख हौंसले से बढ़ते रहें:

                             ...ले जाएंगे किसी मंजिल पर
                             मेरे ये क़दम मुझको ज़रूर
                             यह निश्चित है
                             क़दम टेढ़े हों या सीधे हों
                             आगे ज़रूर ले जाते हैं,
                             कोई क़दम कभी बेकार नहीं जाता
                             गिरना भी क़दम उठाना है
                             इसी से टूटे स्वर फिर जुड़ जाते हैं
                             खोई लहरें फिर वापस जाती हैं
                             और मैं क़दम क़दम
                             आगे बढ़ता हूँ
                             प्रतिदिन, प्रतिक्षण!

Wednesday, 1 May 2013






मजदूर दिवस 1 मई' पर दो शब्द

आज इस वक्त सहसा ही मुझे हिंदी साहित्य के महान कवि निराला की पंक्तियाँ  याद आ रही हैं:
वह तोड़ती पत्थर 
देखा इलाहाबाद के पथ पर....

आज मजदूर दिवस पर तमाम रचनाएँ और लेख मजदूरों की जिंदगी और उसमें व्याप्त समस्याओं पर पढ़ने को मिले! पर क्या यह हकीकत नहीं है कि हम स्वय अपने जीवन में सबसे ज्यादा मोलभाव इन्हीं गरीब तबके के लोगों से काम लेते वक्त करते है! बात चाहे रेलवे स्टेशन पर कुली करने की हो या घर में पुताई करने वाले मजदूरों की, मई-जून की तपती दुपहरी में रिक्शा खींचने वाले की हो या नंगे पांव ठेले पर सब्जी बेचने वाले की....आदि....जहाँ कहीं भी हमारा वास्ता इन गरीब तबके के लोगों से पड़ता है: हम मोलभाव करने से नहीं चूकते...इनको देते वक्त 10/- रूपये का नोट बहुत बड़ा लगता है....किसी मेगामार्ट में क्या हम उसी तरह मोलभाव करते है??...किसी कीमती रेस्टोरेंट में तो हम फटाफट हजार रुपये खर्च  देते हैं...???
मित्रों, हमें स्वयं अपना दृष्टिकोण बदलना होगा! आम जीवन में इन मजदूरों का वास्ता हम और आप से ही पड़ता है! हमारा आपसे विनम्र निवेदन है कि जब कभी आपका वास्ता इनसे कार्य लेने का पड़े तो इन्हें पूरा मूल्य दीजिए! आइए इस परिवर्तन की शुरुआत आज से क्या अभी से ही करें...
सधन्यवाद!.