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Friday, 10 May 2013







परिवर्तन-3

पहले राह चलते 
कहीं सूनसान में कोई दीख जाता था
तो मन को तसल्ली होती थी
कि चलो एक से दो हो गए
अब कोई किसी बात का डर नहीं

अब राह चलते कोई दीख जाता है
तो प्राण सूख जाते हैं
और यही डर बना रहता है
कि पता नहीं कब क्या हो जाए
और कदम खुद--खुद
तेज उठ पडते हैं मंजिल की ओर

सोचती हूँ-
अब हमें जितना डर आदमी से लगता है
शायद ही उतना डर
अब और किसी से लगता हो           
           
(कविता-संग्रह "एक किरण उजाला" से)

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