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Wednesday 1 May 2013






मजदूर दिवस 1 मई' पर दो शब्द

आज इस वक्त सहसा ही मुझे हिंदी साहित्य के महान कवि निराला की पंक्तियाँ  याद आ रही हैं:
वह तोड़ती पत्थर 
देखा इलाहाबाद के पथ पर....

आज मजदूर दिवस पर तमाम रचनाएँ और लेख मजदूरों की जिंदगी और उसमें व्याप्त समस्याओं पर पढ़ने को मिले! पर क्या यह हकीकत नहीं है कि हम स्वय अपने जीवन में सबसे ज्यादा मोलभाव इन्हीं गरीब तबके के लोगों से काम लेते वक्त करते है! बात चाहे रेलवे स्टेशन पर कुली करने की हो या घर में पुताई करने वाले मजदूरों की, मई-जून की तपती दुपहरी में रिक्शा खींचने वाले की हो या नंगे पांव ठेले पर सब्जी बेचने वाले की....आदि....जहाँ कहीं भी हमारा वास्ता इन गरीब तबके के लोगों से पड़ता है: हम मोलभाव करने से नहीं चूकते...इनको देते वक्त 10/- रूपये का नोट बहुत बड़ा लगता है....किसी मेगामार्ट में क्या हम उसी तरह मोलभाव करते है??...किसी कीमती रेस्टोरेंट में तो हम फटाफट हजार रुपये खर्च  देते हैं...???
मित्रों, हमें स्वयं अपना दृष्टिकोण बदलना होगा! आम जीवन में इन मजदूरों का वास्ता हम और आप से ही पड़ता है! हमारा आपसे विनम्र निवेदन है कि जब कभी आपका वास्ता इनसे कार्य लेने का पड़े तो इन्हें पूरा मूल्य दीजिए! आइए इस परिवर्तन की शुरुआत आज से क्या अभी से ही करें...
सधन्यवाद!.


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