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Sunday, 28 April 2013






जरा ठहर अभी ओ अंतिम वसंत*

क्या कहूँ मैं तुमसे अपनी व्यथा
जीवन मेरा एक चिरंतन कथा

जीवन में नहीं आया कभी फ़ाग
वक्त गाता रहा वही आदिमराग

नहीं मिला कभी कोई कल्प-वृक्ष
अनुत्तरित रहे कितने ही प्रश्न-यक्ष

क्या याद करूँ मैं विगत प्यार
कितनी नावों में कितनी बार

दुःख मनुष्य को यूँ देता माँज
लगती मधुर भाद्रपद की साँझ

कंधे पर उठा इतिहास का शव
चलती रही सलीब से नाव तक

प्रकृति ने किए मुझसे ऐसे उपहास
मैं रही उत्तर और पूरब खिले पलाश

क्या कहूँ अब मैं कुछ विशेष
नहीं रहा कुछ अब शेष-अशेष

बिछुडे मुझसे मेरे पिता और माँ
सुख रहा कृष्ण-पक्ष की पूर्णिमा

हो जाए सभी कामनाओं का अंत
जरा ठहर अभी ओ अंतिम वसंत 

(*सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार और कवि श्री रवींद्र नाथ त्यागी की कुछ पुस्तकों के शीर्षकों को आधार बनाकर लिखी गयी कविता)

7 comments:

  1. वाह, सुंदर संयोजन ......

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    1. आपकी स्नेहात्म्क ऊर्जा लिए प्रतिक्रिया के लिए हम आपके ह्रदय से शुक्रगुजार हैं!
      सादर/सप्रेम,
      सारिका मुकेश

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  2. जीवन की गहन अनुभूतियों को व्यक्त करती रचना
    बधाई


    आपके विचार की प्रतीक्षा में
    कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?

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    Replies
    1. आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार!
      सादर/सप्रेम,
      सारिका मुकेश

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  3. बेहद खूबसूरत प्रयास

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  4. This comment has been removed by the author.

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