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Wednesday, 29 May 2013

देखती रह जाती हूँ रोज


ज्येष्ठ माह की घनी दुपहरी में
मेरे घर के सामने
स्थित पार्क में
खुले आसमान के नीचे
घास में से
पेड़ों की सूखी पत्तियां बीनती
वो नाजुक और कमसिन लड़कियाँ
अपने कार्य में व्यस्त
शायद मौसम से बेखबर
आपस में बतियाते हुए
खिलखिलाकर हंसती रहती हैं
और मैं देखती हूँ
आसमान में
सूरज को चमकते
आग बरसाते हुए
और देखती रह जाती हूँ रोज
उन्हें आग के दरिया से
हंसकर गुजरते हुए!

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