हमारे लिए ऊर्जा के परम-स्रोत...

Wednesday, 17 September 2014




किसी बेहतरीन ग़ज़ल की तरह
ये एक बेहतरीन खयाल होती है
कमाल भला कुछ और क्या होगा
ज़िन्दगी खुद में कमाल होती है......

सदा मुस्कुराते रहिए :))




(चित्र गूगल से साभार)




Tuesday, 16 September 2014

अपने-अपने दर्द


आवरण भले ही
दीखते हों
अलग- अलग
पर
हम सब
अंततः
लिपटे हुये हैं
अपने-अपने
दर्द में ∙

(चित्र गूगल से साभार)

Monday, 21 April 2014

पुस्तक समीक्षा





आज 21.04.2014 को भोपाल और उज्जैन से प्रकाशित “दैनिक अग्निपथ” समाचार पत्र में हमारे हाइकु-संग्रह “शब्दों के पुल” की डॉ. राजेश रावल जी द्वारा की गई समीक्षा प्रकाशित हुई है...
हार्दिक आभार डॉ. राजेश रावल जी :))





Friday, 4 April 2014

पुरस्कृत होने के क्षण...




सारिका मुकेश का कविता-संग्रह “खिल उठे पलाश” पुरस्कृत हुआ और उन्हें “शब्द श्री” सम्मान से विभूषित किया गया

मध्य प्रदेश सामाजिक विज्ञान शोध संस्थान, उज्जैन में अखिल भारतीय साहित्यिक सम्मान, 2014’ के समारोह में 30 मार्च 2014 रविवार को सारिका मुकेश के कविता-संग्रह खिल उठे पलाशको पुरस्कृत कर शब्द श्रीकी मानद उपाधि से सम्मानित किया गया । हम इसके लिए समस्त निर्णायक मंडल का हृदय से आभार व्यक्त करते हैं। खेद है कि परिस्थितियोंवश इस सुअवसर पर सारिका मुकेश में सिर्फ़ मुकेश ही सम्मिलित हो सके।
इस कार्यक्रम में विक्रम विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ रामराजेश मिश्र की अध्यक्षता में हुए सम्मान समारोह मे अतिथि के रूप में वरिष्ठ कलाविद् डॉ प्रभातकुमार भट्टाचार्य, श्री अनिल अनवर जोधपुर, वरिष्ठ पत्रकार श्री सुनील जैन, कलाविद् प्रो संदीप राशिनकर इंदौर, डॉ सतिन्दर कौर सलूजा उपस्थित थे ।


Friday, 14 March 2014

प्रकृति बचाओ, बेटियाँ बचाओ




ज़रा भविष्य के विषय में भी सोचिए:



दोस्तों, आज इस इक्कीसवीं सदी तक पहुँचते-पहुँचते हम शिक्षित तो खूब हुए पर हमने प्रकृति को ध्वंस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी I कभी-कभी तो यूँ लगता है कि हमारी सारी प्रगति और उन्नति के मूल में यह विध्वंस ही छिपा है I हमने प्रकृति का सारा संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है I जब कभी सुनामी या उत्तराखण्ड जैसी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो हम इस पर खूब भाषणबाज़ी करते हैं पर अगले ही क्षण फिर से इससे खिलवाड़ करने लगते हैं I हम सब अपने स्वार्थ में अंधे होकर अपने वर्तमान में होने वाले व्यवसायिक फ़ायदे में लगे हैं, भविष्य की तो मानो हमें कोई चिंता ही नहीं है I नदियों से अवैध खनन का मामला हो या अंधाधुंध वनों की कटाई या फिर पहाड़ों को काट-काटकर बस्तियाँ और शहर बसाना हो या बालिका-भ्रूण हत्याएं...सब कुछ असंतुलन ही तो पैदा कर रहा है जिसके परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भोगने के लिए अभिशप्त होंगी I अगर हम ऐसे ही चलते रहे तो उनके लिए यही तोहफ़ा तो छोड़कर जाएँगे ना I
आजकल चारों ओर पर्यावरण बचाओ, स्त्रियाँ बचाओ की खूब चर्चा है I इस विषय पर समूचा जगत चिंतित भी दिखाई दे रहा है और एक साथ खड़ा भी I जगह-जगह इस पर बड़ी-बड़ी कांफ्रेंस हो रही हैं और खूब लिखा पढ़ा जा रहा है I सरकारें भी वक़्त-वक़्त पर इस संबंध में अपने तमाम दावें पेश करती रही हैं परंतु हालातों में कहीं पर भी शायद ही संतोषजनक स्थिति में सुधार दिख रहा है I
सच में अगर हम ध्यान से देखें तो स्त्री ही तो प्रकृति का साक्षात् रूप होती है; दोनों ही सृजन करती हैं और दोनों के बिना ही यह धरती बंजर होने में देर नहीं लगेगी । यह वक़्त इन समस्याओं पर गंभीरता से सोचने का है; अगर समय रहते हमने इस पर ध्यान नहीं दिया तो बाद में पछताने के सिवा कुछ न रहेगा....




Thursday, 6 March 2014

एक हाइकुनुमा कविता









न हो हताश
डूबकर उगता
फ़िर से सूर्य
***

सभी मित्रों को सुप्रभात :-))

(चित्र: गूगल से साभार)




Wednesday, 5 March 2014

ऐसा भी होता है....





हमारी पुस्तक शब्दों के पुलपढ़कर हमारी एक सम्मानित मित्र ने (जो हमसे फेसबुक के माध्यम से ही परिचित हैं और अब हमारी प्रिय बहन बन चुकी हैं) हमसे फोन पर अपनी सहज, स्वाभाविक प्रतिक्रिया एक विशिष्ट अंदाज़ में व्यक्त की ! हमें महसूस हुआ कि अपनी रचना के माध्यम से भी हम किसी से कितना जुड़ जाते हैं...हमें लगा कि हमारी पुस्तक 'शब्दों के पुल' ने हमारे बीच एक पुल बना दिया है...अदृश्य सा...अनजाना सा...अवर्णित सा....और हमने कुछ पंक्तियाँ उन पलों के लिए लिखी हैं......बताएं कैसी लगीं??
*****

नदिया की तरह
कल-कल, छल-छल करती हुई
आपकी आवाज़,
सिक्कों की तरह खनकती हुई
आपकी हँसी
अभी तक गूँज रही है
मेरे कानों में...

कितनी खुश थीं आप
आपकी ख़ुशी
फ़ोन से छलक कर
बाहर आ रही थी
ऐसा लग रहा था
की बस अब खुद ही
दौड़कर आने वाली हो मिलने

कितनी तल्लीनता से
उल्लेख कर रही थीं आप
एक-एक दृष्टांत
और कितनी उत्साहित थीं
वो सब वर्णित करते हुए...

सच कहूँ,
मुझे उस वक़्त
ऐसा लगा था
जैसे आप एक छोटी-सी
एक प्यारी-सी बच्ची बन गईं थीं
जो खुद में खोई
किए जा रही थी
अपने मन की बात
जिसका मन शीशे की तरह था निर्मल
और मन से निर्बाध बह रहे थे जज़्बात....

और इस तरह एकाएक ही
ईश्वर ने आपके रूप में
सहजता से सौंप दी थी हमें
एक प्यारी-सी बहन की
अमूल्य सौगात
*****

शुभ-संध्या




आपे में ही खो गया अब इतना यह संसार
धन्यवाद तक से नहीं व्यक्त करते लोग उदगार
करते लोग उद्गार ना करना किसी की इज़्ज़त जानें
दो तुम उनको इज़्ज़त तो वो खुदा खुद को मानें
कहें मुकेश कविरायना व्यर्थ में समय गंवाओ
ख़ुद पर रखो ध्यान अब ना दूजे पे निगाह गड़ाओ...





(चित्र गूगल से साभार)


Saturday, 22 February 2014

कविता पढ़ने से पहले एक प्रश्न



यथार्थ के
धरातल पर
खड़े होकर चाहिए
जीने के लिए पैसा
रहने के लिए घर
खाने को रोटी
पहनने को कपड़ा

मैं भी जरूर पढ़ूँगा 
पर पहले
यह बता दो
क्या मुझे
यह सब कुछ
दे सकती है
तुम्हारी कविता?                                                   

हमारी पुस्तक 'हवा में शब्द' का कवर पेज







Cover page of our sixth book ‘Hava Mein Shabd’



हमारी पुस्तक 'हवा में शब्द' का कवर पेज 


खिली-सी धूप




(चित्र गूगल से साभार) 



तुझसे मिल
बन जाते अपने
पल भर में
***
खिली-सी धूप
छत पर लड़की
उदास मन
***
तू खुद पर
रख पूरा विश्वाश
बनेगी बात

***


Thursday, 20 February 2014





Impressions on Sarika Mukesh’s “Shabdon ke Pul” by Dr. Neelanjana Pthak

The longest distance can be bridged by the shortest words. Sarika Mukesh’s publication Shabdon ke Pul (“Bridges of Words”) 2014 did just this. Although I have not had the pleasure of meeting Dr. Sarika Mukesh personally, her books, sent so thoughtfully to me dissolve the distance of the thousands of miles that separate Tamil Nadu from Madhya Pradesh, and bring me almost face to face with her. This is what all good literature must do-narrow the distance between the creator and the reader, especially when the collection is titled Shabdon ke Pul.
I was charmed by the title and began to turn the pages musing one after the other on the more than eighty ‘moment’s monuments’ that it consisted of. It is with joy that I read of the healing power of poetry in the appended prefatory note wherein the author narrates the healing impact of her verse on an ailing near one. Let us hope that despite the cacophonous materialistic noises all around, poetry like all aesthetic pursuits shall continue to provide embalming music to weary souls. On this one hope the charm of good poetry can sustain itself despite assaults from so many directions.
In this brief write up I would like to randomly sum up my reflections on some selected poems from the volume:
·                          The collection opens with a poem on Shri Krishna with a sequel following it on the Radha Krishna myth. Following this there are short pieces to charm a Krishna devote including one wherein the poet narrates an imaginary conversation with the mythical flute player raising rhetorical questions that delight.
·        There are captivating images of dawn and dusk presented before the mind’s eye in delightful shades with the poem on dawn ending with a Shellyian optimism spilling over also in the next poem ‘Asha-Pratyasha’. What a solace it is to read that the whole sky lies in our palm’s reach. An image of the sun mirroring the day deserves mention as does the striking nature image of moon and stars hanging on a rope in the sky.
·        ‘Sandhya Ke Waqt’ and ‘Haseen Shaam’ in a sequence are two beautiful illustration of sunset and the human activities that accompany and follow it. With deft strokes the hungers of love are only hinted at with a great deal more left to the imagination.
·        In ‘Tumhari Yaad’ memory is concretised through images of lotus, pearls and sandal. As in most  Haiku poetry, the images stem out of directly observed occurences, events and things and are therefore very easy to empathize with.
·        Kaleidoscopic pictures of memories confront us yet again towards the end of the collection in ‘Shesh Hai Yaad’- Memory personified as knocking at the mind – as hanging frames on walls bringing tears as they flash upon the inward eye.
·        These series of poems particularly made me recall Yeats often quoted lines “Out of the quarrel with others we make rhetoric; out of the quarrel with ourselves we make poetry”.
·        The titles are arresting and invite an immediate response from the poetry lover. They carry us directly to the core concern of the verse and leave us wonder-struck and reflecting for long after the hiaku reading is over. Short words, short stanzas, shorter lines carrying deep meanings and eternal truths clothed in sweeping generalisations –‘Sorrows will divide on sharing, joys will multiply (translated) – make a deep impact on the psyche. The pangs of a lover’s seperation are seldom so simply stated as in ‘Vidaa’ (Separation) where the title itself inducts us into the core concern of the poem.
·        Some grim issues and the need to direct the thinking of the readers in the direction of some corrective measures are highlighted in poems on practical issues related to everyday living like ‘Dudh Andolan’ , “Kaise Kaise Sach’ ‘Pahunch Gaye Kahan hum” (on Rising Sensex and Falling Sexual Morals), Parivartan (Change is the Eternal Truth), ‘Sansad Maun’ (Satire on Contemporary Political Scenario). The beauty of a poem lies in knowing exactly what is to be left unsaid- saying less and suggesting more. This is evident in poems of this collection like ‘Panchhi’, ‘Achha Vyaktitva’ and ‘Aakanksha’ to name a few. These poems illustrate Frost’s words that poetry is saying one thing meaning another. For instance the bitter truths of a fast paced mechanical life are hinted in ‘Jeevan ki Ramayan’. The spark is kindled to be turned ablaze in the readers’ minds.
·        “No poet can know what his poem is going to be like until he has written it”, opines W.H. Auden, “The Poem”, ‘Manovigyan’ is a penetrating picture of the human mind’s inexplicable workings. It raises pertinent questions related to everyday occurrences-why trains attract every age, why beauty seduces, why ripe fruits and beautiful flowers are the first to be plucked. ‘Umra and Hum’ is a new way of looking at birthdays as taking us a year closer to our end and hence a time to reflect on the shortness of life.
·        All human relationships are built or broken because of words, words both said or unsaid are indeed bridges that span the distance between two hearts and forge a connect/bond of a lifetime. Hence the title of the collection invites an immediate response as does the title poem  ‘Shabdo ke Pul’- it carries  a very delicately balanced image of broken relationships carried on fragile bridges of words–relationships break, bridges of words crumble in a moment (translation of second stanza). All bridges built by words lack a concrete foundation and can be devastated by storms of misunderstanding. The poem ends again with a rhetorical question on the transition of all relationships, leaving us thinking for long. Perhaps relationships fail because instead of building bridges we build walls of separation!
·        The poet’s succinct comment on the new culture so predominant everywhere expressed in a satiritic view in the aptly titled ‘Nayi Sanskrati’, rings a bell in every reader’s mind. We have all come across over ambitious aspiring youths who wish to rise tall even if it means by  beheading peers
Barhte raho
Chahe katna pare
Kisi ka gala
·        The joyful pains of live expressed through concrete image of pearls is impressive in ‘Aansu’ as it brings to the mind the woes of a lover so hard to conceal even harder to reveal, similarly voiced again in ‘Na Chala Pata’ as pain is described to be  melting away like wax once blessed with the estacsies of love. There is a chain of poems on the myth of Draupadi’s public disrobing and her consequent plight as depicted in ‘The Mahabharta’. These clearly indicate the author’s feminist stance. Meaning words so aptly and directly used leave the reader pondering on the horrific disgrace of the mythical heroine and also all women thereafter. The poetic technique employed  has a mantric quality:
Aaj .na kal
Abla ho sabal
Ichchha prabal
·        Indeed, “ True ease in writing comes with practice not chance, as those move easiest that have learnt to dance.”(Pope) ‘Naari: Ek Chitran’ has an image which makes a mark on the mind for being refreshingly innovative: the image of tongue and cheek to describe the state of women in a society burdened by lustful male gazes from all directions.
·        This unforgettable collection ends befittingly on a devotional note begging for forgiveness ending in all humility which is always the crowning glory of any artist. It instantly reminds one of Tagore’s muse in Geetanjali and the need to surrender ego at divine feet to accomplish bigger ideals.
·        The conventional three worded verse of haiku makes an immediate impact upon the audience’s mind we grasp the essence and retain it comes with a brief moment’s pause. This results in better empathy with the poet and the poem- there is deeper involvement. We respond better to poems that trigger in us similar memories of our own past and since this collection has such a rich medley of themes from different experiences of life, there is something to hold the interest of every section of reader. Also it most certainly leaves us in contemplation and virtually prepares us in remote ways to confront life’s ups and downs with more fortitude and maturity. This is the ultimate test that any work of art can be put to. I wish Sarikaji’s ‘God’s Plenty’ in all her forthcoming endeavors and am tempted to end with the words of T.S. Eliot, “Only those who risk going too far can possibly find out how far they can go.”

Dr. Neelanjana Pathak
Jabalpur (M.P.)
  

P.S: On the negative side, if I may share an opinion, the asterisk and the date of composition post every stanza acted as a deterrent in the free flow of thoughts. This could have been received only for the last stanza to ensure a free flow of thoughts.

Sunday, 16 February 2014



14 फरवरी को लोकपाल बिल के मुद्दे पर दिल्ली विधानसभा में खूब हंगामा हुआ और तत्कालीन मुख्यमंत्री (दिल्ली) ने अपना इस्तीफ़ा दे दिया...एक बार फिर से आन्दोलन/स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई/भ्रष्टाचार/एक दूसरे को पछाड़ने/उखाड़ फेंकने के स्वर तेज हो उठे हैं...इसी परिवेश पर चंद हाइकु हमारी ओर से:

बदली हवा
नहीं चलेगी अब
वो राजनीति
      *
तोड़ने होंगे
वर्तमान में बने
सत्ता के किले
      *
सोचता मन
कैसा ये जनतंत्र
त्रस्त है जन

      *

(चित्र: गूगल से साभार)




13 फरवरी को भारतीय लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाली संसद में इसी मंदिर के कुछ माननीय भक्तों (नेताओं) ने काली मिर्च का स्प्रे करने का पुनीत कार्य संपन्न किया, जिससे कुछ भक्तों (नेताओं) को तुरंत अस्पताल की शरण में जाना पड़ा ! यह नज़ारा पूरी दुनिया ने देखा, हम भारतवासी फिर से एक बार शर्मसार हुए...!  इसी परिवेश पर चंद हाइकु हमारी ओर से:

खेलते कुश्ती
संसद के मैदान
नेता महान
      *
कैसे ये नेता
उड़ाते जो मखौल
गणतंत्र का
      *
जो कुछ हुआ
जनता है शर्मसार
मस्त हैं नेता
      *




(चित्र: गूगल से साभार)

Monday, 10 February 2014

सुप्रभात :-))






सब हृदय से तेरे आभारी हैं ओ मेरे भगवान
हर रोज सुबह के रूप में तू जो देता है वरदान.....


सुप्रभात :-))

 
चित्र गूगल से साभार 

Sunday, 9 February 2014

पुस्तक समीक्षा




हिंदी ब्लॉग जगत में सुपरिचित डॉ. सुशील कुमार जोशी जी ने अपने विशिष्ट अंदाज़ में हमारी पुस्तक “शब्दों के पुल” पर अपने स्नेह-पुष्पों के रूप में कुछ स्वसृजित हाइकुओं की वर्षा की है । जहाँ तक मुझे याद पड़ता है मैंने पहले इनके हाइकु नहीं पढ़े हैं और यही इस समीक्षा की विशेषता कही जाएगी कि हाइकु की पुस्तक पर हाइकुओं द्वारा ही उन्होंने अपनी बात रखी है । हम उनके शुक्रगुज़ार हैं और हम उसे आप सभी मित्रों से यहाँ साझा कर रहे हैं :


जीवन और उससे जुड़े हुए हर पहलू को छूता है
“शब्दों के पुल”



डा. सारिका मुकेश की किताब ‘शब्दों के पुल’ हाथ में हैं । एक साधारण पाठक को समीक्षा करने का अवसर और एक सम्मान जो उन्होंने मुझे दिया है, उसके लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं । लेखन मेरा शौक नहीं मजबूरी है। हाँ, ब्लॉग की भूल-भुलैय्या में भटकने की आदत जरूर है । अपने कृतित्व को पुस्तक का रुप दे पाना आसान नहीं होता है और सबसे महत्वपूर्ण है पाठक तक उसका पहुँचना । डा. सारिका मुकेश से मैं जितना परिचित हूँ उतने में ही मुझे उनका लेखन के प्रति झुकाव और असीम ऊर्जा का आभास हुआ । ‘शब्दों के पुल’ मे बहुत ही सुंदरता के साथ 112 पन्नों में 83 शीर्षकों के अंतर्गत तीन सौ दस हाईकू को एक माला की तरह पिरोया गया है। डा. सारिका मुकेश ने जीवन और उससे जुड़े हुऐ हर पहलू को छुआ है। हाईकू में पाँच-सात-पाँच अक्षरों की तीन लाईनों में बहुत खूबसूरती से जिस अंदाज में बहुत से पहलुओं को छूते हुए कवयित्री ने बहुत गहरी बातों को भी बहुत ही आसानी से कह दिया है, वो वाकई काबिले- तारीफ़ है । प्रतिभा भीड़ में से उसी तरह से निकल कर सामने आ जाती है जैसे दूध से मक्खन उसे ना टिप्पणियों की जरूरत होती है ना समीक्षा की । मैं कवि तो नहीं हूँ पर इतना जरूर कहना चाहूँगा:

सभी कुछ तो 

लिख दिया गया है 
बचा क्या है
       *


ऐसे ही कुछ 

लिखती चली जाना 
है अभिलाषा ।
       *


फिर-फिर से 

पढ़ना है जो लिखा
समझ गया

       *


शब्दों के पुल

बनाती चली गईं
फेविकोल से 
       *

आभार ले लो 
दिया है अवसर

सोचने का
       *



फिर-फिर पढ़कर नये-नये अर्थ समझता रहूँगा । इतना जरूर कहूँगा इस विधा के विद्यार्थियों के लिए इस तरह की पुस्तक पाठ्यक्रम में रखी जानी चाहियें । शुभकामनाओं के साथ,

डा. सुशील कुमार जोशी 
प्रोफेसर भौतिक रसायन विज्ञान 
कुमाऊँ विश्वविद्यालय
अल्मोड़ा-263601 (उत्तराखण्ड)

Thursday, 6 February 2014

वसंत आया






                                                 वसंत आया 
                                    आई तुम्हारी याद 
                                        दिल दुखाया 

(चित्र गूगल से साभार)