हमारी पुस्तक “शब्दों के पुल” पढ़कर हमारी एक सम्मानित मित्र ने (जो हमसे फेसबुक के माध्यम से ही परिचित हैं और अब हमारी प्रिय बहन बन चुकी हैं) हमसे फोन पर अपनी सहज, स्वाभाविक प्रतिक्रिया एक विशिष्ट अंदाज़ में व्यक्त की ! हमें महसूस हुआ कि अपनी रचना के माध्यम से भी हम किसी से कितना जुड़ जाते हैं...हमें लगा कि हमारी पुस्तक 'शब्दों के पुल' ने हमारे बीच एक पुल बना दिया है...अदृश्य सा...अनजाना सा...अवर्णित सा....और हमने कुछ पंक्तियाँ उन पलों के लिए लिखी हैं......बताएं कैसी लगीं??
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नदिया की तरह
कल-कल, छल-छल करती हुई
आपकी आवाज़,
सिक्कों की तरह खनकती हुई
आपकी हँसी
अभी तक गूँज रही है
मेरे कानों में...
कितनी खुश थीं आप
आपकी ख़ुशी
फ़ोन से छलक कर
बाहर आ रही थी
ऐसा लग रहा था
की बस अब खुद ही
दौड़कर आने वाली हो मिलने
कितनी तल्लीनता से
उल्लेख कर रही थीं आप
एक-एक दृष्टांत
और कितनी उत्साहित थीं
वो सब वर्णित करते हुए...
सच कहूँ,
मुझे उस वक़्त
ऐसा लगा था
जैसे आप एक छोटी-सी
एक प्यारी-सी बच्ची बन गईं थीं
जो खुद में खोई
किए जा रही थी
अपने मन की बात
जिसका मन शीशे की तरह था निर्मल
और मन से निर्बाध बह रहे थे जज़्बात....
और इस तरह एकाएक ही
ईश्वर ने आपके रूप में
सहजता से सौंप दी थी हमें
एक प्यारी-सी बहन की
अमूल्य सौगात
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