ज़रा भविष्य के विषय में भी सोचिए:
दोस्तों, आज इस इक्कीसवीं सदी तक पहुँचते-पहुँचते हम शिक्षित तो खूब
हुए पर हमने प्रकृति को ध्वंस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी I
कभी-कभी तो
यूँ लगता है कि हमारी सारी प्रगति और उन्नति के मूल में यह विध्वंस ही छिपा है I
हमने प्रकृति
का सारा संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है I जब कभी सुनामी या उत्तराखण्ड जैसी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं
तो हम इस पर खूब भाषणबाज़ी करते हैं पर अगले ही क्षण फिर से इससे खिलवाड़ करने लगते
हैं I हम सब अपने स्वार्थ में अंधे होकर अपने वर्तमान में होने
वाले व्यवसायिक फ़ायदे में लगे हैं, भविष्य की तो मानो हमें कोई चिंता ही नहीं है I
नदियों से
अवैध खनन का मामला हो या अंधाधुंध वनों की कटाई या फिर पहाड़ों को काट-काटकर
बस्तियाँ और शहर बसाना हो या बालिका-भ्रूण हत्याएं...सब कुछ असंतुलन ही तो पैदा कर
रहा है जिसके परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भोगने के लिए अभिशप्त होंगी I
अगर हम ऐसे ही
चलते रहे तो उनके लिए यही तोहफ़ा तो छोड़कर जाएँगे ना I
आजकल चारों ओर पर्यावरण बचाओ,
स्त्रियाँ
बचाओ की खूब चर्चा है I इस विषय पर समूचा जगत चिंतित भी दिखाई दे रहा है और एक साथ
खड़ा भी I जगह-जगह इस पर बड़ी-बड़ी कांफ्रेंस हो रही हैं और खूब लिखा
पढ़ा जा रहा है I सरकारें भी वक़्त-वक़्त पर इस संबंध में अपने तमाम दावें पेश
करती रही हैं परंतु हालातों में कहीं पर भी शायद ही संतोषजनक स्थिति में सुधार दिख
रहा है I
सच में अगर हम ध्यान से देखें तो
स्त्री ही तो प्रकृति का साक्षात् रूप होती है; दोनों ही सृजन
करती हैं और दोनों के बिना ही यह धरती बंजर होने में देर नहीं लगेगी । यह वक़्त इन
समस्याओं पर गंभीरता से सोचने का है; अगर समय रहते हमने
इस पर ध्यान नहीं दिया तो बाद में पछताने के सिवा कुछ न रहेगा....
विचारणीय ।
ReplyDeleteआभार :))
Deleteइंसान का बढ़ता वहशीपन कहाँ जाकर रुकेगा -सोच कर ही दहशत होती है .आनेवाली पीढ़ियों के लिए क्या बचेगा यहाँ !
ReplyDeleteइंसान का बढ़ता वहशीपन कहाँ जाकर रुकेगा सोचकरल ही दहशत हती है . अभी भी नहीं सँभला तो आनेवाली पीढ़ियों के लिए विकृत जीवन ही शेष रह जायेगा
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