हमारे लिए ऊर्जा के परम-स्रोत...

Monday, 30 December 2013



                          

अलविदा 2013..............शुभागमन 2014

वर्ष 2013 दरवाजे पर जाने को आतुर खड़ा है...
इस वर्ष ने हमें कितना रुलाया पर हँसाया भी
इस वर्ष ने हमने कितना कुछ खोया पर पाया भी
इस वर्ष में कितने ही ख़्वाब रह गए अधूरे
इस वर्ष में कितने ही हसीं स्वप्न हो गए पूरे
इस वर्ष में कितने ही अज़नबी बन गए अपने
इस वर्ष में हमने बुने कितने ही नए सपने
इस वर्ष में कितनों के ही सिंहासन डोले
इस वर्ष ने ना जाने कितनों के राज़ खोले
इस वर्ष में कितने ही आम आदमी बन गए खास
कितने ही जीवन में हुए फेल कितने ही हुए पास  
इस वर्ष में ना जाने कितने हुए परिवर्तन
इस वर्ष में कितने ही कर गए पलायन
और भी ना जाने कितना कुछ इस वर्ष में घटा है
कितनी ही संभावनाओं पर से तम औ’ कोहरा छंटा है

अगर हम गौर से देखें तो बंजारों की तरह आता है हर वर्ष
जो हमारे साथ हमारे बीच एक वर्ष रह कर लौट जाता है
हम अपनी सारी सफलता, असफलता, हर्ष और विषाद  
उसके संग जोड़कर करते हैं फिर सदा उसको याद
पर ये सब होता है हमारी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का लेखाज़ोखा
पर हम सब कुछ उसके मत्थे मढ़कर करते हैं उससे धोखा

सच तो यही है दोस्तों कि हर ‘वर्ष’
ईश्वर की ओर से दिया गया
हमें एक स्वर्णिम अवसर है;
कुछ कर दिखाने का
आकाश को छू लेने का
आकाश हो जाने का ...

आईये, चलिए हम
अपने गुज़रे वर्ष का आँकलन करें
और स्वागत करें
द्वार पर दस्तक देते हुए
नव-वर्ष 2014 का
जो नवजात शिशु की तरह
किलकारियाँ मार रहा है
और हमारी गोद में आने को आतुर है...

“नव-वर्ष आपको हमको एवं इस समस्त चर/अचर जगत के लिए मंगलमय हो”
सादर/सप्रेम,
सारिका मुकेश

30.12.2013

Sunday, 17 November 2013

कल अचानक मिल गया एक पुराना कवि


कल अचानक ही मिल गया एक पुराना कवि
तुरंत पहचान गया हमारी कवि वाली छवि
कुशलक्षेम पूछने के उपरांत
अपनी जिज्ञासा करने को शांत
उसने अपना मुँह खोला
और बडे ही प्रेम से बोला-
आपको देखकर लगता है आप अच्छी लिखी-पढी हैं
फिर आप क्यों कविता लिखने के इस पचडे में पडी हैं
किसी अच्छी मल्टीनेशनल कंपनी में चली जाईए
और फिर आराम से अपना जीवन बिताइए...
मैने उसे बीच में ही टोका
अपनी बात कहने को रोका
मैंने उससे तुरंत पूछ डाला-
कविता करने में क्या बुराई है?
कविता हमारे मन की गाँठों को खोलती है
जो हम ना कह सकें कविता वो भी बोलती है

अंतर्मन की पीडा से मुक्त होने को
लिखता आ रहा है मानव युगों-युगों से
तुलसी ने भी लिखी थी रामायण
स्वान्तः सुखायः के लिए
जो आज ना जाने
कितनों के ही मन को करती है शांत
और भर देती है अपार सुख से

फिर क्यों तुम
पूछते हो मुझसे
कि मैं क्यों लिखती हूँ
अगर पूछना ही है
तो यह पूछो
कि मैं कैसे लिखती हूँ

पुराने कवि ने अपने जीवन में
ना जाने कितना होगा सहा
उसी को ध्यान में रखते हुए उसने
बडी ही विनम्रता से मुझसे कहा-
मैडम! सिर्फ कविता लिखने से ही
पेट तो नहीं भरा जा सकता
ना ही कोई खाली पेट
पढेगा तुम्हारी पुस्तक
लिखने-पढने के लिए भोजन जरूरी है
इसीलिए पूछता हूँ
जीविका चलाने के लिए
तुम क्या करती हो
सिर्फ कविता ही लिखती हो
या कभी अपना और अपने परिवार में
भूखे व्यक्ति का पेट भी भर देती हो..

Saturday, 16 November 2013

किताब में रखा हुआ फूल


कल पढते-पढते 
एकाएक ही 
किताब में रखा हुआ
मिल गया एक फूल
और याद दिला गया-
गुज़रे हुए कितने ही हसीं पल
वो हँसता हुआ चेहरा
प्यार से वो आँखें छलछल
ना जाने कितनी ही कसमें
जो कभी निभाई ना जा सकी
और ह्र्दय की ऐसी कुछ बातें 
जो कभी बताई ना जा सकीं
ना जाने कितने ही वादे
जो ना हो सके कभी पूरे
और ना जाने कितने ही ख्वाब 
जो रह गए हमेशा के लिए अधूरे

याद आ गईं और भी
ना जाने कितनी ही बातें
वो उसका बिछुड़ जाना
और वो हसीन मुलाकातें   

अतीत की कितनी ही                                             
खट्टी-मीठी यादों से
मन को भिंगो जाता है
जब कभी पढते-पढते
किताब में कोई फूल
रखा हुआ मिल जाता है

Friday, 15 November 2013

शाम



दिन की
ल्हाश को ढोती
रात्रि के
मरघट की ओर
सरक-सरक कर
ले जाती
उदास-उदास सी
शाम.                                                                         
  

Sunday, 10 November 2013

सच की लकीरें




तुम जो देख रहे हो
इस काग़ज़ पर
यह सब कोई कविता नहीं
यह मैं हूँ...तुम हो...
हम सब ही तो हैं...
यह तो सच की वो लकीरें हैं
जो हमारे आसपास
चारों ओर हर कहीं
जाल की तरह बिछी हैं
जिनके बीच से अक्सर
रोज़ होता है हमारा गुज़रना
और हम प्राय: उन पर
छोटी-मोटी टिप्पणी कर
बिना ज़्यादा ध्यान या तवज़्ज़ो दिए
बढ़ जाते हैं अपनी मंजिल की ओर
पर हम अगर ध्यान से देखें
तो इन लकीरों में छिपी है एक दास्तान
यही तो हैं वो महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़
जिनमें बयाँ है इस संक्रमण काल का सच
जिसमें कितना कुछ नया सृजन हो रहा है
तो कितना ही कुछ पुराना मिट रहा है
यूँ भी बिना मिटाए वक़्त की स्लेट पर
नया लिखा जाना भी तो नामुमकिन होता है ना
इतिहास बनने के लिए वर्तमान को तो मिटना ही पड़ता है
और तब ही तो भविष्य वर्तमान बन जाता है
यूँ भी बिना विदा हुए आगमन
बिना बिछुड़े हुए मिलन
कहाँ संभव है??
                                ******

(हमारे आगामी कविता-संग्रह "सच की लकीरें" से)

Saturday, 2 November 2013

आई दीपावली



आई दीवाली
काली अँधेरी रात
हुई रौशन
***    
पूजा-अर्चना
दीप हुए रौशन
हर्षित मन
***    
चले पटाखे
ढेर सारी मिठाई
खील-बताशे
***    
बिखरा किए
फुलझड़ी के फूल
चहके बच्चे
***    
चमके मन
दहके जो अनार
फूल हजार
***    
अंधकार में
खूब छटा बिखेरें
दीपों की माला
***

दीपावली पर हमारी हार्दिक शुभकामनाएं!

Wednesday, 2 October 2013


उमड़ी भीड़ 
जहाँ पड़े चरण
तुम्हें नमन.
     ***
ओ राष्ट्र-पिता
अहिंसा के पुजारी
तुम्हें नमन.
      ***
महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्री जी को हमारा कोटि-कोटि नमन!
जय हिन्द! जय भारत!!

Thursday, 12 September 2013

तुम तुम ही हो



तुम्हारी आभा
वसंत की बहार
फूलों का हार
     ***
हुआ मैं धन्य
पाया तुम्हारा प्यार
प्रिये आभार
     ***
मिलो जो तुम
महक उठे मन
मेरे सनम
     ***

Friday, 6 September 2013

पिछले दिनों समाचारों में धार्मिक आस्था और विश्वाश को एक तथाकथित धर्म गुरु द्वारा छलनी करती खबर से सब देशवासी हतप्रभ रह गए; उसी को विषय बनाया है हमने इन हाइकुओं में:

वाह रे संत
आस्था के नाम पर
ये धोखाधड़ी
   ***
अक्सर ले के
बचे फिरते दुष्ट
धर्म की ओट
   ***
कैसा ये काम
क्यों किया बदनाम
राम का नाम
   ***
वाह रे वाह
संत की खाल ओढ़े
छिपा भेड़िया
   ***
लूटे इज़्ज़त
बनता दादा नाना
पुकारे बेटी
   ***
देता था मुक्ति
अब ना काम आई
क्यों कोई युक्ति
   ***
टूटी अकड़
चढ़ा पुलिस हत्थे
बोलती बंद
   ***
सच ही कहा
भरने पर फूटे
पाप का घड़ा
   ***
करे जो बुरा
उसका बुरा अंत
ये कहें संत

   ***

Sunday, 1 September 2013




लहरों का सरगम है
                        "पानी पर लकीरें"
                                -0-0-0-

हमारा प्रथम कविता-संग्रह

   


    आभासी दुनिया में कुछ ऐसे सम्बन्ध बन जाते हैं, जिनके आभास की महक से मन गद-गद हो जाता है। डॉ. सारिका मुकेश उनमें से एक हैं जो मुझे प्यार से चाचाजी कहती हैं। कुछ समय पूर्व इन्होंने मुझे अपने काव्यसंकलन "पानी पर लकीरें" की प्रति डाक से भेजी थी। जीवन की आपाधापी में से समय निकाल कर मेंने "पानी पर लकीरें" के बारे में कुछ शब्द लिखने का प्रयास मैंने किया है।
     रचना लिखना बहुत सरल है लेकिन उन रचनाओं का प्रकाशन एक कठिन और जटिल है। जिसमें धन के साथ-साथ प्रकाशित साहित्य को जन-जन तक पहुँचाना हँसी-खेल नहीं है। डॉ. सारिका मुकेश से कभी मेरा साक्षात्कार तो नहीं हुआ लेकिन पुस्तक के माध्यम से इतना तो आभास हो ही गया कि मन में लगन और ललक हो तो रचनाओँ को साथ-साथ उनका प्रकाशन असम्भव नहीं है।   
     डॉ. सारिका मुकेश की कृति "पानी पर लकीरें" की भूमिका में सोहागपुर, जिला-होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) के डॉ. गोपाल नारायण आवटे लिखते हैं-
    “संवेदनाएँ जब उत्कर्ष होतीं हैं तब रचना बनकर प्रकट होतीं हैं।.....रचनाएं मनुष्य को जीवित रखतीं हैं या मनुष्य रचनाओं को जीवित रखता है, यह अनसुलझा प्रश्न हो सकता है लेकिन इस कविता संग्रह में अनसुलझे प्रस्नों को भी उठाया गया है। सदियों से जो प्रस्न आज बा मनुष्य के सामने अनुत्तरित हैं फिर उनके उत्तर की खोज क्यों नहीं की जा रही है? जिन प्रश्नों को खोज लिया गया उन पर भी हम अनजान बनकर भोले बालक की तरह लड़ाइयाँ संघर्ष कर रहे हैं। इस पर भी कवयित्री ने अपनी चिन्ता प्रकट की है।..."   
    "पानी पर लकीरें" काव्य संग्रह की रचनाओँ में दैनिक जीवन से जुड़ी तमाम घटनाओं का सजीव चित्रण है, जो प्रेरणा के साथ-साथ सोजने को बाध्य भी करता है।
     श्रीमती सारिका मुकेश ने अपने निवेदन में भी यह स्पष्ट किया है- 
    “मैंने जब कभी भी कविता के बारे में एकान्त में सोचा है तो सदा ये ही महसूस किया है कि कविता मेरे लिए इस घुटन भरे माहौल में एक ताजा और स्वच्छ साँस की तरह है। कविता जीवन के तमाम हकीकतों से हमें रूबरू होने का मौका देती है, कविता खुद हमसे हमारा परिचय कराती है। जीवन की आपाधापी में स्वयं का हाथ कहीं स्वयं से न छूट जाये। इसलिए कविता लिखती रहती हूँ। मैं कवि होने का दावा तो नहीं करती पर हाँ कविता से विश्वास के साथ कह सकती हूँ। जो काव्य सृजन में लगे हैं उनके प्रति मेरी कृतज्ञता और सादर शुभकामनाएँ और उन सभी तमाम काव्यप्रेमियों के प्रति अहो भाव जो कविता के प्रति प्रें रकते हैं और उन्हें पढ़ते हैं...!
   "पानी पर लकीरें" में प्रेम का स्वर मुखरित करते हुए कवयित्री कहती है-
                               “प्रेम शाश्वत है
                                भले ही हो
                                इसमें बिछुड़ना...
    कवयित्री अपनी एक और रचना में लिखती है-
                                 “तुम से
                                अलग रहने की
                                कल्पना मात्र से
                                हो जाती हूँ
                                भयभीत
                                यह
                                तन्तु हैं
                               निजी स्वार्थ के
                               या
                               इसी को
                               कहते हैं
                               प्रीत.
     कवयित्री के "पानी पर लकीरें" काव्यसंग्रह में कुछ कालजयी कविताओं का भी समावेश है जो किसी भी परिवेश और काल में सटीक प्रतीत होते हैं-
                               “मस्जिद से आती
                                अजान की आवाज हो
                                या मन्दिर में गूँजते
                                मन्त्रों के स्वर....
                                पर सभी हैं रास्ते
                                प्रार्थना के
                                जो पहुँचाते हैं
                                 परमात्मा तक...
कवयित्री अपनी एक और कविता में कहती हैं-
                             “आओ नवयुग का करें आह्वान
                               मिटे द्वेष-ईष्या हृदयों से
                               जन-जन का होवे कल्याण
                               आओ नवयुग का करें आह्वान...
कवयित्री ने अपनी व्यथा और आशंका को शब्द देते हुए लिखा है-
                              “ठीक से
                              याद नहीं
                              पर मैंने
                              पढ़ा था
                              कहीं पर
                             जो तलवार
                             धारण करते हैं
                             उतरते हैं
                             तलवार के घाट

                             हे प्रभू!
                             पर मेरा क्या होगा
                             मैंने तो
                             धारण की है कलम
                             तो फिर क्या
                             मैं उतरूँगी
                             कलम के घाट?”
    रिश्तों के प्रति अपनी अपना स्वर मुखरित करते हुए कवयित्री कहती है-
                            “रिश्ते हो गये
                             घर के उस सामान की तरह
                             जिसकी हम
                             पहले तो कर देते हैं छँटनी
                             कबाड़ी को देने के लिए
                             और फिर
                             यह सोच कर रख लेते हैं
                             वापिस घर में
                              कि यह कुछ तो
                              काम आयेगा
                              भविष्य में
                              कहीं न कहीं
                              कभी न कभी..!

      संकलन की अन्तिम रचना में कवयित्री लिखतीं है-
                             कभी-कभी
                              मन भी बुनता है
                              मकड़ी जैसे जाले
                              और फिर उनमें
                              खुद ही फँस जाता है...!
      समीक्षा की दृष्टि से मैं कृति के बारे में इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इस काव्य संकलन में हमारे आस-पास जो भी घटता है उन छोटे-छोटे क्रिया-कलापों को कवयित्री ने बहुत कुशलता से शब्दों में पिरोया है। यह कृति पठनीय ही नही अपितु संग्रहणीय भी है और कृति में अतुकान्त काव्य का नैसर्गिक सौन्दर्य निहित है। जो पाठकों के दिल पर सीधा असर करता है और सोचने को विवश कर देता है।
     "पानी पर लकीरें" काव्य संग्रह को पुण्य प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है। हार्डबाइंडिंग वाली इस कृति में 109 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य मात्र 200/- रुपये है।
      अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि मुझे पूरा विश्वास है कि “प्रारब्ध”काव्यसंग्रह सभी वर्ग के पाठकों में चेतना जगाने में सक्षम है। इसके साथ ही मुझे आशा है कि “प्रारब्ध” काव्य संग्रह समीक्षकों की दृष्टि से भी उपादेय सिद्ध होगा।
     "पानी पर लकीरें" को प्राप्त करने के लिए कवयित्री से चलभाष-09952199557 या 08124163491 पर सम्पर्क किया जा सकता है।
शुभकामनाओं के साथ!
समीक्षक
 (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कवि एवं साहित्यकार 
टनकपुर-रोडखटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) 262 308
फोन-(05943) 250129
मोबाइल-09368499921