लहरों का सरगम है
"पानी पर लकीरें"
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आभासी दुनिया में कुछ ऐसे सम्बन्ध बन जाते हैं, जिनके आभास की महक से मन गद-गद हो जाता है। डॉ. सारिका मुकेश उनमें से
एक हैं जो मुझे प्यार से चाचाजी कहती हैं। कुछ समय
पूर्व इन्होंने मुझे अपने काव्यसंकलन "पानी पर
लकीरें" की प्रति डाक से भेजी थी। जीवन की आपाधापी में से समय निकाल कर मेंने
"पानी पर लकीरें" के बारे में कुछ शब्द लिखने का प्रयास मैंने किया है।
रचना लिखना बहुत सरल है लेकिन उन रचनाओं का प्रकाशन एक कठिन और जटिल
है। जिसमें धन के साथ-साथ प्रकाशित साहित्य को जन-जन तक पहुँचाना हँसी-खेल नहीं
है। डॉ. सारिका मुकेश से कभी मेरा साक्षात्कार तो नहीं हुआ लेकिन पुस्तक के माध्यम
से इतना तो आभास हो ही गया कि मन में लगन और ललक हो तो रचनाओँ को साथ-साथ उनका
प्रकाशन असम्भव नहीं है।
डॉ. सारिका मुकेश की कृति "पानी पर लकीरें" की भूमिका में
सोहागपुर, जिला-होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) के डॉ. गोपाल
नारायण आवटे लिखते हैं-
“संवेदनाएँ जब उत्कर्ष होतीं हैं तब रचना बनकर प्रकट होतीं
हैं।.....रचनाएं मनुष्य को जीवित रखतीं हैं या मनुष्य रचनाओं को जीवित रखता है,
यह अनसुलझा प्रश्न हो सकता है लेकिन इस कविता संग्रह में अनसुलझे
प्रस्नों को भी उठाया गया है। सदियों से जो प्रस्न आज बा मनुष्य के सामने
अनुत्तरित हैं फिर उनके उत्तर की खोज क्यों नहीं की जा रही है? जिन प्रश्नों को खोज लिया गया उन पर भी हम अनजान बनकर भोले बालक की तरह
लड़ाइयाँ संघर्ष कर रहे हैं। इस पर भी कवयित्री ने अपनी चिन्ता प्रकट की
है।..."
"पानी पर लकीरें" काव्य संग्रह की रचनाओँ में दैनिक जीवन से जुड़ी
तमाम घटनाओं का सजीव चित्रण है, जो प्रेरणा के साथ-साथ
सोजने को बाध्य भी करता है।
श्रीमती सारिका मुकेश ने अपने निवेदन में भी यह स्पष्ट किया है-
“मैंने जब कभी भी कविता के बारे में एकान्त में सोचा है तो सदा ये ही
महसूस किया है कि कविता मेरे लिए इस घुटन भरे माहौल में एक ताजा और स्वच्छ साँस की
तरह है। कविता जीवन के तमाम हकीकतों से हमें रूबरू होने का मौका देती है, कविता खुद हमसे हमारा परिचय कराती है। जीवन की आपाधापी में स्वयं का
हाथ कहीं स्वयं से न छूट जाये। इसलिए कविता लिखती रहती हूँ। मैं कवि होने का दावा
तो नहीं करती पर हाँ कविता से विश्वास के साथ कह सकती हूँ। जो काव्य सृजन में लगे
हैं उनके प्रति मेरी कृतज्ञता और सादर शुभकामनाएँ और उन सभी तमाम काव्यप्रेमियों
के प्रति अहो भाव जो कविता के प्रति प्रें रकते हैं और उन्हें पढ़ते हैं...!”
"पानी पर लकीरें" में प्रेम का स्वर मुखरित करते हुए
कवयित्री कहती है-
“प्रेम शाश्वत है
भले ही हो
इसमें बिछुड़ना...”
कवयित्री अपनी एक और रचना में लिखती है-
“तुम से
अलग रहने की
कल्पना मात्र से
हो जाती हूँ
भयभीत
यह
तन्तु हैं
निजी स्वार्थ के
या
इसी को
कहते हैं
प्रीत.”
कवयित्री के "पानी पर लकीरें" काव्यसंग्रह में कुछ कालजयी
कविताओं का भी समावेश है जो किसी भी परिवेश और काल में सटीक प्रतीत होते हैं-
“मस्जिद से आती
अजान की आवाज हो
या मन्दिर में गूँजते
मन्त्रों के स्वर....
पर सभी हैं रास्ते
प्रार्थना के
जो पहुँचाते हैं
परमात्मा तक...”
कवयित्री अपनी एक और
कविता में कहती हैं-
“आओ नवयुग का करें
आह्वान
मिटे द्वेष-ईष्या
हृदयों से
जन-जन का होवे कल्याण
आओ नवयुग का करें
आह्वान...”
कवयित्री ने अपनी व्यथा
और आशंका को शब्द देते हुए लिखा है-
“ठीक से
याद नहीं
पर मैंने
पढ़ा था
कहीं पर
जो तलवार
धारण करते हैं
उतरते हैं
तलवार के घाट
हे प्रभू!
पर मेरा क्या होगा
मैंने तो
धारण की है कलम
तो फिर क्या
मैं उतरूँगी
कलम के घाट?”
रिश्तों के प्रति अपनी अपना स्वर मुखरित करते हुए कवयित्री कहती है-
“रिश्ते हो गये
घर के उस सामान की तरह
जिसकी हम
पहले तो कर देते हैं
छँटनी
कबाड़ी को देने के लिए
और फिर
यह सोच कर रख लेते हैं
वापिस घर में
कि यह कुछ तो
काम आयेगा
भविष्य में
कहीं न कहीं
कभी न कभी..!”
संकलन की अन्तिम रचना में कवयित्री लिखतीं है-
“कभी-कभी
मन भी बुनता है
मकड़ी जैसे जाले
और फिर उनमें
खुद ही फँस जाता है...!”
समीक्षा की दृष्टि से मैं कृति के बारे में इतना
जरूर कहना चाहूँगा कि इस काव्य संकलन में हमारे आस-पास जो भी घटता है उन छोटे-छोटे
क्रिया-कलापों को कवयित्री ने बहुत कुशलता से शब्दों में पिरोया है। यह कृति पठनीय
ही नही अपितु संग्रहणीय भी है और कृति में अतुकान्त
काव्य का नैसर्गिक सौन्दर्य निहित है। जो पाठकों के दिल पर सीधा असर करता है और
सोचने को विवश कर देता है।
"पानी पर लकीरें" काव्य संग्रह को पुण्य प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है। हार्डबाइंडिंग वाली इस कृति में 109 पृष्ठ
हैं और इसका मूल्य मात्र 200/- रुपये है।
अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि मुझे पूरा विश्वास
है कि “प्रारब्ध”काव्यसंग्रह सभी वर्ग के पाठकों में चेतना जगाने में सक्षम है। इसके साथ ही मुझे
आशा है कि “प्रारब्ध” काव्य
संग्रह समीक्षकों की दृष्टि से भी उपादेय सिद्ध होगा।
"पानी पर लकीरें" को प्राप्त करने के लिए कवयित्री से
चलभाष-09952199557 या 08124163491 पर सम्पर्क किया जा सकता है।
शुभकामनाओं के साथ!
समीक्षक
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कवि एवं साहित्यकार
टनकपुर-रोड, खटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर
(उत्तराखण्ड) 262 308
E-Mail . roopchandrashastri@gmail.com
Website. http://uchcharan.blogspot.com/
फोन-(05943) 250129
मोबाइल-09368499921
रचनाकार के प्रति सहानुभूति समीक्षा की पहली शर्त है। निरभिमानी होना दूसरी। आप दोनों शर्तों पर खरे उतरे हैं। कृति भी।
ReplyDeleteसबसे पहले... पुस्तक के प्रकाशन पर ढेरों बधाई!:-) ईश्वर आपकी लेखनी को ऐसे ही मधुर भावों को छलकाने में मदद करता रहे!
ReplyDeleteसमीक्षा बहुता अच्छी लगी! जो भी पंक्तियाँ यहाँ साझी की गयीं... बहुत ही भावपूर्ण व दिल को छूने वाली हैं! हम अवश्य ही इसे पढ़ना चाहेंगे!
~सादर!!