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Tuesday, 28 January 2014

'शब्दों के पुल" की समीक्षा



   जीवन की धूप और छाँव है
                          'शब्दों के पुल'




दोस्तों...आज ही 'सारिका मुकेश' जी की लिखी नई पुस्तक 'शब्दों के पुल' (प्रकाशक-जाह्नवी प्रकाशन, दिल्ली) प्राप्त हुई है. हिन्दी कविता में नवीन प्रयोगवादी कवियों के द्वारा जापान से जिस नई विधा ' हाइकु' का पदार्पण हुआ, उसी विधा में यह पुस्तक अपने रंग बिखेरती है .                        
अपनी भावनाओं को कम से कम शब्दों में सार्थकता से पिरोना काफी कठिन है परन्तु सारिका मुकेश जी ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए इस विधा को नए आयाम प्रदान किये है. जहाँ उनके कुछ हाइकु परंपरागत कविता को नई दिशा प्रदान करते है वही दूसरी और कुछ हाइकु मानव स्वभाव का सफल चित्रण करते प्रतीत होते है.
कुल मिलाकर जीवन की धूप और छाँव, दोनों को, मात्र तीन पंक्तियों में बांधकर सारगर्भित रूप से प्रस्तुत किया गया है जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है. इस सफलता पर मेरी और से उन्हें बहुत बहुत शुभकामनाएं.
आशा है कि भाविष्य में भी वे इस प्रकार के नवीन प्रयोगों से कविता को ऊँचाइयाँ प्रदान करेंगे......
उनकी पुस्तक 'शब्दो के पुल' से कुछ हाइकु – 

                         पूरब दिशा,
                         प्रातः हो उठी लाल,
                         निकला सूर्य.
                          -------------
                         ठगता रहा,
                         माया का संसार,
                         जन्मों-जन्मों से
                         ----------------
                         चलती यादें
                         मस्तिष्क पटल पे
                         चलचित्र सी
                         ----------------
                         लगे अक्सर
                         आ पहुंची निकट
                          जीवन संध्या
                         -----------------

---एक बार फिर से सारिका मुकेश जी को बहुत बहुत बधाई...
              - देव निरंजन
              (लेखक एवं कवि)
              देवास (म.प्र.)
                                                     21 जनवरी 2014

Sunday, 26 January 2014

'शब्दों के पुल' की समीक्षा





मर्मस्पर्शी हाइकुओं का संकलन है
शब्दों के पुल

   
     अभी एक सप्ताह पूर्व डॉ. सारिका मुकेश द्वारा रचित एक हाइकु संग्रह मिला, जिसका नाम था शब्दों के पुल। 83 रचनाओं से सुसज्जित 112 पृष्ठों की इस पुस्तक को जाह्नवी प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। जिसका मूल्य रु.200/- रखा गया है। जनसाधारण की सोच से परे इसका आवरण चित्र Creative Art ने तैयार किया है।
       इस हाइकु संग्रह को आत्मसात् करते हुए मैंने महसूस किया है कि इसकी रचयिता डॉ. सारिका मुकेश अपने आप में एक शब्दकोष हैं। चाहे उनकी लेखनी से रचनाओं के रूप में क्षणिकाएँ निकलें या हाइकु निकलें वह अपने आप में किसी कविता से कम नहीं होती है।
       कवयित्री ने अपनी बात में लिखा है-
हाइकु स्वयं में एक कविता है। इसमें कहे से अधिक अनकहा होता है, जिसके अर्थ पाठक अपनी पैनी दृष्टि और सूझ-बूझ से खोजकर तराशता है। हाइकु मूलतः प्रकृति से जुड़े रहे हैं परन्तु मनुष्य भी इसी प्रकृति का हिस्सा है और वैसे भी साहित्य समाज का दर्पण है और समाज व्यक्ति/मनुष्य से बनता है, सो मनुष्य की अनदेखी करना कदापि उचित नहीं होगा। इसलिए मनुष्य को केन्द्र में रखकर खूब हाइकु लिखे जा रहे हैं।

जीवन जैसे
दूब की नोक पर
ओस की बूँद
--
क्यों भूले सत्य
भूल गये ईश्वर
अहंकार में

      कवयित्री ने अपने हाइकु संग्रह “शब्दों के पुल” का श्रीगणेश वन्दे चरण से किया है-

वन्दे चरण
तुझको समर्पण
श्रद्धा सुमन
--
ओ मेरे कान्हा
रँग दे चुनरिया
अपने रँग
--
उम्र तमाम
बसो मेरे मन में
ओ घनश्याम

       महाभारत के परिपेक्ष्य में कवयित्री ने नारी की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कुछ इस प्रकार से हाइकुओं में बाँधा है-

महाभारत
अन्याय के खिलाफ
बिछी बिसात
--
पाँच पाण्डव
’ अकेली द्रोपदी
करती तृप्त
--
स्त्री की नियति
कभी अंकशायिनी
तो कभी जूती

      प्रकृतिचित्रण में भी डॉ.सारिका मुकेश की कलम अछूती नहीं रही है।संध्याकाल को उन्होंने अपने हाइकुओं में शब्द देते हुए लिखा है-

दिन में थक
समुद्र की गोद में
छिपता सूर्य
--
लौटते पंछी
अपने घोंसले में
बच्चों के पास
--
हसीन शाम
उतरी धरा पर
छलके जाम

       आयु की शाश्वत परिभाषा कवयित्री ने उम्र और हमशीर्षक से कुछ इस प्रकार दी है-

उम्र की गाड़ी
दौड़ती प्रतिपल
मृत्यु की ओर
--
उम्र बढ़ती
घटती प्रतिपल
यह जिन्दगी
--
जन्मदिन क्यों?
होता एक बरस
आयु का कम

       डॉ.सारिका मुकेश ने अपने हाइकु संग्रह “शब्दों के पुल” में रोजमर्रा की चर्या में पाये जाने वाले आशा-प्रत्याशा, सोचता मन, मित्र, पंछी,आकांक्षा, सूरज, पानी पर लकीरें, आदमी, आँसू, अज्ञानता, विसंगति, तूफान, परिवर्तन, बेवफाई, विदा, रामायण, राजनीति, जीवनसंध्या, नारी आदि विविध विषयों पर अपनी सहज बात कही है।
      अन्त में इतना ही कहूँगा कि डॉ. सारिका मुकेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और उनकी हाइकुकृति “शब्दों के पुल” एक पठनीय ही नहीं अपितु संग्रहणीय काव्य पुस्तिका है।
     मेरा विश्वास है कि शब्दों के पुल” हाइकुसंग्रह सभी वर्ग के पाठकों के दिल को छूने में सक्षम है। इसके साथ ही मुझे आशा है कि यह हाइकु संग्रह समीक्षकों की दृष्टि से भी उपादेय सिद्ध होगा।
शुभकामनाओं के साथ!
समीक्षक
 (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कवि एवं साहित्यकार 
टनकपुर-रोडखटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) 262 308
फोन-(05943) 250129
मोबाइल-07417619828


शब्दों के पुल



शब्दों के पुल

आड़ी-तिरछी
जीवन की डगर
सँभलकर
***    
जुड़ें हैं हम
विविध होकर भी
ज्यों मालगाड़ी
***    
मिलाए छोर
जीवन और मृत्यु
शब्दों के पुल

***     

Thursday, 23 January 2014

रामायण पर तीन हाइकु






करने पूरा
पिताजी का वचन
वो गए वन
       ***
ये मानो लला
मुकद्दर का लिखा
ना टाले टला
       ***
पंचवटी से
माँ सीता का हरण
करे रावण

       ***

Wednesday, 22 January 2014

तुम हो एक वृक्ष



तुम हो एक वृक्ष




संग तुम्हारा
ज़ेहन में अब भी
बसे हैं किस्से
   ***
ना भूला कभी
वो छलकती हँसी
निर्मल छवि
   ***
जन्मों का साथ
तुम हो एक वृक्ष
मैं एक डाली

   ***

Thursday, 16 January 2014

रख विश्वाश



रख विश्वाश




नया आकाश
नयी संभावनाएं
नयी उड़ान
       ***
बनो सशक्त
लो मुट्ठी में आकाश
खूँदो जहान
       ***
रख विश्वाश
हौंसलों में उड़ान
छू ले आकाश

       ***

Wednesday, 15 January 2014

दीप बन के जलूँ



दीप बन के जलूँ






पूजा-अर्चना
मन को करें शुद्ध
दें नयी शक्ति
        ***
बनूँ तो बनूँ
आरती का दीपक
तेरे थाल में
       ***
बन के दीप
जलूँ तेरे मन में
यही कामना
       ***

Tuesday, 14 January 2014

ऐसी हो प्रार्थना



जब कभी भी
हम ईश्वर से
करें प्रार्थना
तो उसमें हो
उसके प्रति
हमारा आभार
कि उसने दिया हमें
मानव योनि में जन्म
और दिया हमें
अच्छा स्वास्थ्य
अच्छा परिवार
और पढ़ने-लिखने
का सुअवसर
और भी हम
कहें जो कुछ
धन्यवाद और
अहोभाव में ही
भींगे हों हमारे स्वर
क्योंकि 
शिकायतों से
भरी प्रार्थना
प्रार्थना नहीं
          शिकायत ही होती है 

आज के दौर में





कैसा विचित्र  संसार  ये  कैसी रीति विचित्र
पैसा  ही अब माता-पिता पैसा  संबंधी मित्र
                        ****
विपदा दूजे की हमें अब तनिक न करे व्याकुल
खुद की एक  खरोंच से  हम हो  जाते  आकुल
                        ****
मतलब  अपना साधकर  खुद  में हो गए लीन
अब  तो  वो  हमको  लगें बंदर  गाँधी के तीन

                        ****

Monday, 13 January 2014

पुस्तक के बारे में

जीवन की धूप-छाँव से गुजरते हुए


ऊसर जमीन में हम, उपहार बो रहे हैं
हम गीत  और ग़ज़ल के उद्गार ढो रहे हैं !! 
          ***
प्रीत और मनुहार लेकर आ रहे हैं !
हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं !!     
          ***

हिंदी ब्लॉग जगत् अर्थात् हिंदी चिट्ठा जगत में जनवरी 2009 से प्रतिदिन अपनी उपस्थित दर्ज़ कराने वाले अनेकानेक लोगों के परम प्रिय डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ की पुस्तक ‘सुख का सूरज’ को पढ़ने का अनुभव कुछ ऐसा ही है जैसे कि जाड़े के मौसम में कई दिनों तक कोहरा छाए रहने के उपरांत आपको एकाएक ही एक दिन कुनकुनी धूप में देरों तक बैठने का सुख मिल जाए...

वो आये हैं मन के द्वारे
इक अरसे के बाद
महक उठे सूने गलियारे
इक अरसे के बाद                   
          ***

इस पुस्तक की भूमिका लिखने का दायित्व श्री सिद्धेश्वर सिंह जी ने शानदार ढंग से बखूबी निभाया है! उन्होंने लेखक और पुस्तक की विषय-वस्तु, दोनों के साथ ही पूर्ण रूप से न्याय किया है, इसके लिए वो अवश्य ही साधुवाद के पात्र हैं!


                                            


शिष्ट मधुर व्यवहार, बहुत अच्छा लगता है
सपनों का  संसार बहुत अच्छा लगता है   
          ***

मधुर भाषी, शिष्ट व्यवहार में कुशल और आत्मीयता से भरपूर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी व्यक्तिगत तौर पर छंदबद्ध और गेय रचनाओं को ही कविता मानते हैं! छन्दमुक्त कविताओं को पढ़ना भी उन्हें अच्छा तो ज़रूर लगता है पर यह उसे  आज भी गद्य ही मानते हैं! शायद यही कारण है की इनकी सभी कविताएँ छन्दबद्ध और गेय शैली में लिखी गई हैं पर इसके लिए कहीं भी यह जोड़-तोड़ करते दिखाई नहीं देते अपितु यह सब स्वत: होता चला जाता है मानों यह सब कुछ किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा रचा जा रहा है और वो तो बस माध्यम मात्र हैं! अगर हम गौर करें तो सच्चे अर्थों में यही तो हमारे जीवन का सार भी है: हम सब निमित्त मात्र ही तो हैं कर्ता तो ‘वो’ ही है, पर हम जीवन भर इस रहस्य को या तो समझते नहीं या ‘मैं’ के अहंकार से बाहर नहीं आ पाते परंतु डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी यह बात स्वयं स्वीकार करते हुए लिखते हैं:

नहीं जानता कैसे बन जाते हैं, मुझसे गीत ग़ज़ल
ना जाने मन के नभ पर, कब छा जाते गहरे बादल...  

माँ सरस्वती अपना वरद हस्त हर किसी पर नहीं रखतीं परंतु डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी सौभाग्य से माँ सरस्वती के कृपा-पात्र बन सके, इसके लिए उनका आभार प्रगट करते हुए कहते हैं:

                   जिन देवी की कृपा हुई है, उनका करता हूँ वन्दन
                   सरस्वती माता का करता, कोटि-कोटि हूँ अभिनंदन!!    

डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी ने गाँव/देहात/कस्बों से लेकर शहर और महानगर तक को स्वयं बहुत करीब से देखा और जाना है, इसीलिए उनकी कविताएँ ज़मीनी तौर पर जब उनका चित्रण करती हैं तो सब एकदम सजीव हो उठता है! उन्होंने अपने घर के वातानुकूलित कमरे में बंद होकर भूख, बेबसी, लाचारी, गरीबी, सामाजिक विषमताओं आदि विषयों पर कविताएँ  नहीं लिखी हैं बल्कि उन्हें स्वयं करीब से देखा है और ऐसा लगता है कि उन्होंने  किसी हद तक अंतर्मन में कहीं न कहीं उसे भोगा भी है! गाँव से उन्हें बेहद आत्मीयता है ! शहर में कई बरस रहने के बावजूद भी उन्हें रह-रहकर जब-तब गाँव की याद आती है और वो उन्हें याद करते हुए नहीं थकते; आप यह खुद ही देख लीजिए:

गाँव की गलियाँ, चौबारे
याद बहुत आते हैं
कच्चे घर और ठाकुरद्वारे
याद बहुत आते हैं   
          ***

भोर हुई चिड़ियाँ भी बोली
किन्तु शहर अब भी अलसाया
शीतल जल के बदले कर  में
गर्म चाय का प्याला आया
खेत-अखाड़े हरे सिंघाड़े
याद बहुत आते हैं        
          ***

इसके अतिरक्त भी और ना जाने कितना ही कुछ ऐसा है जो गाँव से शहर आते वक़्त वहीं पर छूट गया पर स्मृति-कोश में अभी तक ताज़ा बना हुआ है ! आज भी वो मटकी का ठंडा पानी, नदिया-नाले, संगी-ग्वाले, चूल्हा-चौका, मक्के की रोटी, गौरी गईया, मिट्ठू भैया, बूढ़ा बरगद, काका अंगद मन से कहाँ विदा ले सके हैं ! गाँव की याद करके तो मन में आज भी एक कसक-सी उठती है और अक्सर यही लगता है:

                   छोड़ा गाँव, शहर में आया
आलीशान भवन बनवाया
मिली नहीं शीतल-सी छाया
नाहक ही सुख चैन गंवाया  
          ***

एक तरफ़ गाँव की पुरानी स्मृतियाँ हैं और दूसरी ओर आज के दौर का  भयावह सच ! वैश्वीकरण के इस युग में आज मानवीय मूल्यों/संबंधों में खोखलापन, नकलीपन, बनावट ने अतिक्रमण कर लिया है और पैसा ही सब कुछ होता जा रहा है! आज हम सब गलाकाट प्रतियोगिता में शामिल हो चुके हैं ! नाम, शौहरत, पुरस्कार, सम्मान और पैसे के लिए हम अंधी दौड़ में लगे हैं, उसके लिए चाहे किसी का भी गला काटना पड़े, चाहे उन कंधों को भी तोड़ना पड़े जिन पर हम खड़े होकर बुलंदियों को छू रहे हों...वर्तमान में ऐसे परिवेश का अध्ययन करते हुए चिंताग्रस्त से दीखते डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी आज के दौर की भयावह सच्चाइयों के विषय में यूँ लिखते हैं:

सम्बन्ध आज सारे व्यापार हो गए हैं
अनुबंध आज सारे बाज़ार हो गए हैं    
          ***
सब टूटते बिखरते परिवार हो गए हैं   
          ***
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
देश का दूषित हुआ वातावरण!!    
          ***
जीवन के हाशिए पर घुट-घुट के जी रहे हैं
माँ-बाप सहमे-सहमे गम अपना पी रहे हैं
कल तक जो पालते थे अब भार हो गए हैं       
          ***
मुखौटे राम के पहने हुए रावण ज़माने में !
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में !! !!   
          ***
दया के द्वार पर, बैठे हुए हैं लोभ के पहरे
मिटी संवेदना सारी, मनुज के स्त्रोत हैं बहरे
सियासत के भिखारी व्यस्त हैं कुर्सी बचाने में 
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में !   
          ***
वो रहते भव्य भवनों में, कभी थे जो वीराने में!   
          ***
श्रमिक का हो रहा शोषण, धनिक के कारखाने में   
          ***
राजनीति परिवार नहीं है
भाई-भाई में प्यार नहीं है 
क्या दुनिया की शक्ति यही है  
          ***
छल प्रपंच को करता जाता
अपनी झोली भरता जाता
झूठे आँसू आँखों में भर
मानवता को हरता जाता
हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है  
**

अजीब दौर है ये, आज रक्षक ही भक्षक बन गए हैं ! कुत्तों को चमड़ी की हिफाज़त करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है ! ऐसी ही कुछ स्थिति की विषमताओं पर उनका यह कटाक्ष देखिए:

धरा रो रही है, गगन रो रहा है
अमन बेचकर आदमी सो रहा है
सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है !
जवानी में थकने लगी ज़िन्दगी है !!
जुगाड़ों से चलने लगी ज़िन्दगी है !!!   
          ***
कृष्ण स्वयं द्रौपदी की लूट रहे लाज
चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज़   
                             ***
कैसे मैं दो शब्द लिखूँ और कैसे उनमें भाव भरूँ?
परिवेशों के रिश्ते छालों के, कैसे अब घाव भरूँ?   
          ***
रेतीले  रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभव भरूँ?   
          ***

परंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वो इस स्थिति से निराश हैं, बल्कि वो पूरी तरह से आशान्वित हैं कि हमारे प्रयासों से स्थिति ज़रूर बदलेगी ! जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं ! समय के साथ बहुत कुछ बदलता है ! परंतु जीवन में आशा के महत्त्व को वो बखूबी जानते हैं:

युग के साथ-साथ, सारे हथियार बदल जाते हैं
नौका खेवन वाले, खेवनहार बदल जाते हैं   
          ***
कभी कुहरा, कभी सूरज
कभी आकाश में बादल घने हैं
दु:ख और सुख भोगने को
जीव के तन-मन बने हैं !!         
          ***
आशा पर संसार टिका है
आशा पर ही प्यार टिका है    
          ***
आशाओं में बल ही बल है
इनसे जीवन में हलचल है...
आशाएं हैं तो सपने हैं
सपनों में बसते अपने हैं...
आशाएं जब उठ जायेंगी
दुनियादारी लुट जायेंगी
उड़नखटोला द्वार टिका है  
          ***
करोगे इश्क़ सच्चा तो, दुआएं आने वाली हैं !
दिल-ए-बीमार को, देने दवाएं आने वाली हैं !!  
          ***
लक्ष्य है मुश्किल बहुत ही दूर है
साधना मुझको निशाना आ गया है   
          ***
हाथ लेकर हाथ में जब चल पड़े
साथ उनको भी निभाना आ गया है  
          ***

यह उनका आशावादी दृष्टिकोण ही तो है जो इतनी विषमताओं के बावजूद सुबह-सवेरे बोलती चिड़ियाएं, खेतों में झूमते हुए गेहूँ की बालियाँ, झूमकर इठलाती हँसती लहराती हुई सरसों, फागुन की फगुनिया, पेड़ो पर कोपलिया लेकर आया मधुमास, धुल उड़ाती पछुआ, नाचते हुए मोर, बसंत की ऋतू, मूंगफली, गज़क रेवड़ी चाट-पकोड़ी पेड़ों पर चहकती चिड़िया, छम-छम बजती गोरी की पायलियाँ, चहकती-महकती सूनी गलियाँ, महकती हुई  बालाएं और बुढ़िया,  गुंजार करते भौरे, टेसुओं के फूल, गति हुई कोयल, मस्त होकर बल खाती हुई कचनार की कच्ची कली सब कुछ उनको अपनी ओर आकर्षित करते हुए उनकी कविताओं का हिस्सा बन जाते हैं और प्रकृति के ऐसे ही दृश्यों में खोकर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी श्रंगार की कविता रच डालते हैं ! कुछ पंक्तियाँ देखिए:

खिल उठा सारा चमन, दिन आ गए हैं प्यार के !
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के !!               
          ***
गुनगुनी सी धूप में, मौसम गुलाबी हो गया!
कुदरती नवरूप का, जीवन शराबी हो गया !!  
          ***
प्रीत है एक आग, इसमें ताप जीवन भर रहे....  
          ***
बादल तो बादल होते हैं
नभ में कृष्ण दिखाई देते
निर्मल जल का सिन्धु समेटे
लेकिन धुआँ-धुआँ होते हैं           
          ***
सोचने को उम्र सारी ही पड़ी है सामने
जीत के माहौल में, क्यों  हार की बातें करें
प्यार के दिन हैं सुहाने, प्यार की बातें करें!!    
          ***
धड़कन जैसे बंधी साँस से
ऐसा गठबंधन कर लो
पानी जैसे बंधा प्यास से
ऐसा परिबंधन कर लो   
          ***
हाथ लेकर जब चले तुम हाथ में
प्रीत का मौसम सुहाना हो गया  
          ***

उनके मन में एक आदर्श वतन/मानव की छवि है जिसे वो साकार देखना चाहते हैं ! उनकी यह कामना कहीं-कहीं स्पष्ट दीखती है:

आदमी से न इंसानियत दूर हो
पुष्प, कलिका सुगंधों से भरपूर हो  
....
मन सुमन हों खिले, उर से उर हों मिले
लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए
ज्ञान-गंगा बहे, शांति और सुख रहे
मुस्कराता हुआ वो वतन चाहिए   
***

मौजूदा परिस्थितयों में बदलाव के लिए हम सभी का योगदान आवश्यक है ! अब यह सर्वविदित है कि अंतर्जाल के माध्यम से आज सभी को अपने को अभिव्यक्त करने का वर्चुअल स्पेस मिला है ! हम ब्लॉग/ट्वीटर/फेसबुक आदि के माध्यम से प्रतिदिन अपने को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करते हैं ! आज के साहित्य/लेखन पर चिंता जताते हुए वो आश्चर्य चकित होकर लिखते हैं:
जीवन की अभिव्यक्ति यही है
क्या शायर की भक्ति यही है   
लेखन के प्रति सजगता बरतने हेतु वो लिखते हैं:
शब्द कोई व्यापार नहीं है
तलवारों की धार नहीं है    

इतिहास गवाह है कि अगर कुछ सार्थक लिखा जाए तो वो न केवल आज के लिए बल्कि युगों-युगों के लिए लोगों के दिलों में अपनी पहचान छोड़ जाता है...आने वाली पीढ़ी को नयी दिशा दे जाता है ! हम सभी जानते हैं कि  चाहे रामायण हो या गीता/महाभारत ऐसे अनेकों ग्रन्थ आदिकाल से हमारी चाहत का केंद्र बने रहे हैं और आज भी हैं...श्री राजेन्द्र राजन जी के गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं: धन दौलत कोठी कारों का सुख तो हमको भी संभव है/ लेकिन हमसे रामायण-सा अब कोई ग्रंथ असंभव है/तुलसी की भाँति हमारा कल जग में सत्कार कहाँ होगा...मानव का जन्म विशिष्ट है, उसे ऐसे कुछ सार्थक और महान कार्य करने ही चाहिएं जो युगों तक उसकी गाथा कहें...तभी इस जन्म की सार्थकता है ! ऐसी ही मनोदशा में डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’ जी लिखते है:

चरण-कमल वो धन्य हैं
समाज़ को जो दें दिशा
वे चाँद तारे धन्य हैं
हरें जो कालिमा निशा 
          ***
जो राम का चरित लिखें
वो राम के अनन्य हैं
जो जानकी को शरण दें
वो वाल्मीकि धन्य हैं    
          ***
अपने को तालाबों तक सीमित मत करना
गंगा की लहरों-धाराओं से मत डरना
आंधी, पानी, तूफानों से लड़ते जाओ !
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ !!

उत्कर्षो के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ ! 
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ !!    
          ***
चरैवेति के मूल मंत्र को
अपनाओ निज जीवन में
झंझावतों के काँटे
पगडंडी पर से हट जाएँ  
          ***

अंत में अपनी वाणी को यहीं पर विश्राम देते हुए हम आप सबसे यही गुज़ारिश करेंगे कि एक बार आप स्वयं इस ‘सुख के सूरज’ के सान्निध्य का पूरा-पूरा लाभ उठाएं !  धन्यवाद!!
                                                    --डॉ. सारिका मुकेश

पुस्तक का नाम:         सुख का सूरज
लेखक:                     डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री
(मोबाइल: 9997996437)
प्रकाशक:                 आरती प्रकाशन, लालकुआं, नैनीताल (उत्तराखण्ड)
प्रकाशन वर्ष:            2011

मूल्य:                     100/- रु. मात्र