जरा ठहर
अभी ओ अंतिम वसंत*
क्या कहूँ मैं तुमसे अपनी व्यथा
जीवन मेरा
एक चिरंतन कथा
जीवन में
नहीं आया कभी फ़ाग
वक्त गाता
रहा वही आदिमराग
नहीं मिला
कभी कोई कल्प-वृक्ष
अनुत्तरित
रहे कितने ही प्रश्न-यक्ष
क्या याद
करूँ मैं विगत प्यार
कितनी नावों
में कितनी बार
दुःख मनुष्य
को यूँ देता माँज
लगती मधुर
भाद्रपद की साँझ
कंधे पर
उठा इतिहास का शव
चलती रही
सलीब से नाव तक
प्रकृति
ने किए मुझसे ऐसे उपहास
मैं रही
उत्तर और पूरब खिले पलाश
क्या कहूँ
अब मैं कुछ विशेष
नहीं रहा
कुछ अब शेष-अशेष
बिछुडे मुझसे
मेरे पिता और माँ
सुख रहा
कृष्ण-पक्ष की पूर्णिमा
हो जाए सभी
कामनाओं का अंत
जरा ठहर
अभी ओ अंतिम वसंत
(*सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार और कवि श्री रवींद्र नाथ त्यागी की कुछ पुस्तकों के शीर्षकों को आधार बनाकर लिखी गयी कविता)
(*सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार और कवि श्री रवींद्र नाथ त्यागी की कुछ पुस्तकों के शीर्षकों को आधार बनाकर लिखी गयी कविता)