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Tuesday, 2 April 2013



हमारी नितांत आत्मीय डा. तृष्णा पटेल ने आज जब अपनी यह कविता हमें पढ़वाई तो हमने सोचा कि क्यों ना इसे आप सभी से भी साझा कर लिया जाए...आपकी प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा रहेगी...
सादर/सप्रेम
डा.सारिका मुकेश 



किसी ने देखा कहाँ?

उगते हुए सूरज के पीछे,
                  डूबते हुए चन्द्रमा को किसी ने  देखा कहाँ?
गहरे शक्ति सागर के अन्दर,
                  उठते हुए तूफान को किसी ने देखा कहाँ?
ठन्डी पड़ी राख के भीतर,
                  दहकते हुए अँगारों को किसी ने देखा कहाँ?
ऊँची-ऊँची इमारतों के नीचे,
                 दबी हुई ईंट को किसी ने देखा कहाँ?
हरी-भरी वादियों के बीच,
                 कुछ मुर्झाए हुए फूलों को किसी ने देखा कहाँ?
अंधेरी रातों के चिलमन में,
                 प्यासे जागते  चकोर को किसी ने देखा कहाँ?
जिंदगी की इस तेज रप्तार में,
                 किसी ने किसी को पलटकर देखा कहाँ?
नित्य नए संबंधों की भीड़ में,
                 किसी ने किसी को छोड़कर फिर देखा कहाँ?
मुस्कुराते हुए आँचल के पीछे,
                 अश्कों भरा दामन किसी ने देखा कहाँ?
डूबती हुई निगाहों में,
                 टूटते हुए सपनों को किसी ने देखा कहाँ?
हँसती-खेलती जिंदगी के पीछे,
                 जालिम मौत को किसी ने देखा कहाँ?

                                     —डा. तृष्णा पटेल

2 comments:

  1. बहुत सुंदर!
    हर सवाल के पीछे का जवाब.... कभी कोई सोचता कहाँ...???
    ~सादर!!!

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  2. हार्दिक आभार!
    सादर/सप्रेम

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