हमारे लिए ऊर्जा के परम-स्रोत...

Monday, 29 July 2013

कैसी है ये प्रगति?



सदियों से चली आ रही
भारत की अमिट पहचान
चिरकालीन संस्कृति
और नैतिक मूल्यों की कब्र पर
खिल रहे हैं आज
बेहतर आर्थिक स्थिति
और प्रगति के फूल

सामाजिकता की बलि देकर
कर रहे हैं अब हम
वैज्ञानिक युग में प्रवेश
फेसबुक, ट्वीटर,टूटू पर
ढूँढते हैं हम अपनापन
सगे रिश्तों में नहीं बची
अब कहीं भी संवेदना शेष.

Sunday, 28 July 2013

मृत्यु के पदचिह्न नहीं होते



मैंने सुना है
मृत्यु आती है दबे पाँव
आना होता है उसे
जब भी 
कभी किसी ठाँव
उसके पैर नहीं पड़ते
कहीं भी धरती पर
और वो जाते वक्त 
ले जाती है
अपने कंधे पर बिठाकर
तभी तो मृत्यु के 
या जाने वाले के
पदचिह्न नहीं होते 
धरती पर.

                                                 (28.07.2013, 4:40 P.M.)

पिता जी और आम के पेड़




मेरे पिता जी ने
कभी अपनी जवानी में
चार पेड़ लगाए थे आम के
जो वक़्त आने पर खूब फूले-फले
खूब खेले हम सारे बच्चे
और बड़े हुए उनकी छाँव तले
कई बरस तक
पूरे परिवार ने खूब आम खाए
और फिर एक दिन जब
पिताजी चल बसे
तो उनके दाह-संस्कार में भी
दो पेड़ उन्हीं में से काम आए 
जलती हुई चिता के समक्ष खड़ा
मैं सोच रहा था
ये पेड़ भी थे मेरे सहोदर
जो आज शामिल हुए हैं मेरे साथ
मेरे पिता जी के अंतिम संस्कार पर

घर लौटते वक़्त सोच रहा था
मैं भी जल्दी ही लगाऊँगा कुछ पेड़
जो काम आएँगे एक दिन
मेरी मृत्यु पर देर-सबेर       
                                                 (28.07.2013, 4:50 P.M.)

Saturday, 27 July 2013

कभी वक़्त मिले तो



कभी वक़्त मिले
तो बैठना
कहीं एकांत में
कोलाहल से दूर
निर्जन और शांत में
फिर याद करना
वो एक-एक लम्हा
जब हम मिले थे
जीवन की डगर में
एक दूसरे से यहाँ
इस अपरिचित शहर में
और फिर
ना जाने कब
बह गये थे हम
अपनत्व की लहर में
याद करना
वो सब कुछ
बीता हुआ
जो अब तुम्हारी
स्मृति से रीता हुआ
यदि उसमें झलके
मेरी निश्छल भावना

यदि उसमें झलके
तुम्हारी समृद्धि की कामना
यदि उसमें झलके
मेरा अपनत्व

यदि उसमें झलके
मेरा प्रेम सशक्त
तो तुम उन्हें याद कर
प्रेम से चूम लेना
दो पल दो घड़ी
उनके संग झूम लेना
फिर उनका दिल से
सत्कार करना
उन्हें चूमना और
खूब प्यार करना
यदि तुमने ऐसा किया
तो मैं धन्य हो जाऊँगी
प्रत्यक्ष में तो
ना पा सकी तुम्हें
चलो अप्रत्यक्ष में ही
पा जाऊँगी ∙  

ओ कृष्ण




                                                बताना कृष्ण
कौन है तुम्हें प्रिय
राधा या मीरा?
   ******
रास रचाते
अब भी मथुरा में
क्या तुम कृष्ण?        
   ******
निधि-वन में
सुना है आज तक
रास रचाते                
   ******
सारथी बन
तुमने अर्जुन का
चलाया रथ             
   ******
निधि-वन में
गोपियों संग कृष्ण
रास रचाते              
   ******
अभी भी आते
क्या तुम हर रात
निधि-वन में    
                                   ******
हम जब मथुरा भ्रमण के लिए गए थे तो हमें वहां गाइड और अन्य लोगों से यह जानकारी मिली थी कि अभी भी प्रतिदिन रात को निधि वन में कृष्ण आते हैं और वहां गोपियों के साथ तमाम रात्रि रास लीला करते हैं, इसीलिए रात्रि को वहां पर कोई नहीं रुक सकता है और जिसने इसके लिए प्रयास किया है अर्थात जो रात्रि को वहां रुक गया है वो उस रात्रि के बाद जीवन भर कुछ बोल नहीं पाया...यह सुनकर मन में एक अजीब सा रोमांच जाग उठा था...उसी की स्मृति में यहाँ कुछ हाइकु लिखे हैं....
******



  

Wednesday, 24 July 2013

पिता



चुपचाप पीते रहे
तुम जीवन का गरल
भीतर ही भीतर
चलते रहे कितने ही युद्ध
पर तुम उनसे लडते हुए भी
बाहर से बने रहे सहज़ और सरल

ना तो किसी ने
रूचि ही ली देखने में
और तुमने भी
अपना अंतःकरण
सदा छिपाया
माँ का प्रेम तो इसीलिए
सर्वविदित है जग में
पर तुम्हारा प्रेम और त्याग
यहाँ कौन जान पाया?
जबकि हर आँधी में तुम
तनकर खडे रहे
विशाल वृक्ष बनकर
चुपचाप सहते रहे सब कुछ
निर्विकार, मौन रहकर
बीता जो भी मन पर

मुझमें है तुम्हारा अंश
मैं तुम्हारा ही प्रतिरूप
तुम्हारे अंश का विस्तार
करती हूँ शत्-शत् नमन्
हे पिता
                                                तुम्हें मैं बारम्बार!                   

Tuesday, 23 July 2013

अन्तर्विरोध

मोटर साइकिल पर
लड़के से
चिपकी हुई लड़की
मुँह पर
क्यों लिपेटती है कपडा़
यदि उसे लगता है
कि वो
नहीं कर रही है
कुछ भी गलत
कि उसे है
अपने तरीके से
अपनी जिंदगी
                                      जीने का पूरा हक़

Monday, 22 July 2013

ये मैं ही हूँ या...

मन की धरती पर
स्वयं ही उग आए
ना जाने कितने ही
अनगिनत पौधे
और फिर
एक दिन
जब देखा उन्हें
देवदार बनकर लहराते
तब मन के भीतर
हुआ ये शक
ये मैं 
ही हूँ 
या देवदार के वृक्ष?

गुरु पूर्णिमा पर विशेष


गुरु गोविन्द दोऊ  खड़े, काके लागूँ पाय,
बलिहारी गुरु आपनौ, गोविन्द दियो बताय
                                                            ******
यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान,
शीश दिए से गुरु मिले, तो भी सस्ता जान
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कबीरदास के इन दो दोहों के साथ आप सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ; आइए नमन करें गुरु, माता-पिता, ईश्वर और उन सभी श्रेष्ठ और विद्वजनों को जिनके स्नेह, आशीष और मार्गदर्शन से हम आज यहाँ तक पहुंचे हैं... 
सादर/सप्रेम

सारिका मुकेश

Sunday, 21 July 2013

सब्र का इम्तेहां



क्या करोगे
मेरे सब्र का
इम्तेहां लेकर
खुशी मिलती नहीं
                   कभी ग़मों को देकर

Saturday, 20 July 2013

आशी और काशी


चार बरस की आशी
और पाँच वर्षीय काशी में
आपस में बडा है मेल
वो एक साथ पढते हैं
और एक साथ खेलते हैं खेल

आशी खेलती है अपने किचन में
खाना, चाय, कॉफी बनाने का खेल
काशी  खेलता है फुटबाल, क्रिकेट
बैडमिंटन और पुलिस-जेल
आशी रचाती है अपनी गुडिया का विवाह
काशी बनता है दूल्हे का पिता
मैंने पाया है अक्सर
उनके बीच काफी है विषमता
काशी है थोडा कठोर
और आशी में छिपी है ममता
काशी में है वर्चस्व दिखाने की भावना
आशी में है सर्वस्व लुटाने की भावना

क्या यह सच नहीं है
कि ईश्वर लडकी में बचपन से ही
सहिष्णुता और ममता जगा देता है
लडका खुद को अहम् मानता है
और सदा अपना पुरूषत्व दिखाता है

सोचती हूँ
लडका और लडकी
बचपन से ही रहे बेमेल
जैसे साथ-साथ चलते हुए भी
एक दूसरे से कभी ना मिलने वाली

दो समानांतर रेल 

Thursday, 18 July 2013

यही तो रहता है हर किसी का सपना

  
अपना पति, अपनी पत्नी
अपने बच्चे, अपना घर-बार
अपनी दुकान, अपनी नौकरी
अपनी बचत, अपना रोजगार
अपनी देह, अपना स्वास्थ्य
अपनी गाडी़, अपनी सवारी
अपनी आय, अपना बैंक-बैलेंस
अपनी गर्ल-फ़्रैन्ड
अपना ब्वॉय-फ़्रैन्ड
और भी
जितना कुछ हो ज़रूरी
सब कुछ हो
और
अच्छा हो अपना
यही तो रहता है
यहाँ हर किसी का सपना ∙ 
 

Wednesday, 17 July 2013

बचपन कहाँ फिर लौटेगा



चार दिवस ये बचपन के
होते हैं एक तोहफ़े जैसे
उन्मुक्त रखो बच्चों को
थोड़ी शैतानी करने दो
बडे़ होकर बन जाएंगे
ये भी गंभीर हमारे जैसे
बचपन कहाँ फिर लौटेगा
उनको मनमानी करने दो