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Monday, 22 July 2013

ये मैं ही हूँ या...

मन की धरती पर
स्वयं ही उग आए
ना जाने कितने ही
अनगिनत पौधे
और फिर
एक दिन
जब देखा उन्हें
देवदार बनकर लहराते
तब मन के भीतर
हुआ ये शक
ये मैं 
ही हूँ 
या देवदार के वृक्ष?

6 comments:

  1. आपकी इस शानदार प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार २३/७ /१३ को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है सस्नेह ।

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    1. मन का बीज ही फूल-फल कर संसार बना देता है- जिसमें समा जाता है 'मैं'!

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    2. बहुत अच्छी व्याख्या...आपका हृदय से आभार!
      सादर/सप्रेम,
      सारिका मुकेश

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  2. हमारी पोस्ट को चर्चा मंच पर स्थान देने हेतु आपका हार्दिक आभार!
    सादर/सप्रेम,
    सारिका मुकेश

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  3. माया कभी कभी सत्य से बड़ी लगती है ...

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    1. वाह, क्या बात कही है आपने..माया सत्य से बड़ी लगती है....कंचन मृग के जैसी....
      हार्दिक आभार आपकी स्नेहात्म्क प्रतिक्रिया हेतु....

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