हमारे लिए ऊर्जा के परम-स्रोत...

Friday, 14 March 2014

प्रकृति बचाओ, बेटियाँ बचाओ




ज़रा भविष्य के विषय में भी सोचिए:



दोस्तों, आज इस इक्कीसवीं सदी तक पहुँचते-पहुँचते हम शिक्षित तो खूब हुए पर हमने प्रकृति को ध्वंस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी I कभी-कभी तो यूँ लगता है कि हमारी सारी प्रगति और उन्नति के मूल में यह विध्वंस ही छिपा है I हमने प्रकृति का सारा संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है I जब कभी सुनामी या उत्तराखण्ड जैसी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो हम इस पर खूब भाषणबाज़ी करते हैं पर अगले ही क्षण फिर से इससे खिलवाड़ करने लगते हैं I हम सब अपने स्वार्थ में अंधे होकर अपने वर्तमान में होने वाले व्यवसायिक फ़ायदे में लगे हैं, भविष्य की तो मानो हमें कोई चिंता ही नहीं है I नदियों से अवैध खनन का मामला हो या अंधाधुंध वनों की कटाई या फिर पहाड़ों को काट-काटकर बस्तियाँ और शहर बसाना हो या बालिका-भ्रूण हत्याएं...सब कुछ असंतुलन ही तो पैदा कर रहा है जिसके परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भोगने के लिए अभिशप्त होंगी I अगर हम ऐसे ही चलते रहे तो उनके लिए यही तोहफ़ा तो छोड़कर जाएँगे ना I
आजकल चारों ओर पर्यावरण बचाओ, स्त्रियाँ बचाओ की खूब चर्चा है I इस विषय पर समूचा जगत चिंतित भी दिखाई दे रहा है और एक साथ खड़ा भी I जगह-जगह इस पर बड़ी-बड़ी कांफ्रेंस हो रही हैं और खूब लिखा पढ़ा जा रहा है I सरकारें भी वक़्त-वक़्त पर इस संबंध में अपने तमाम दावें पेश करती रही हैं परंतु हालातों में कहीं पर भी शायद ही संतोषजनक स्थिति में सुधार दिख रहा है I
सच में अगर हम ध्यान से देखें तो स्त्री ही तो प्रकृति का साक्षात् रूप होती है; दोनों ही सृजन करती हैं और दोनों के बिना ही यह धरती बंजर होने में देर नहीं लगेगी । यह वक़्त इन समस्याओं पर गंभीरता से सोचने का है; अगर समय रहते हमने इस पर ध्यान नहीं दिया तो बाद में पछताने के सिवा कुछ न रहेगा....




Thursday, 6 March 2014

एक हाइकुनुमा कविता









न हो हताश
डूबकर उगता
फ़िर से सूर्य
***

सभी मित्रों को सुप्रभात :-))

(चित्र: गूगल से साभार)




Wednesday, 5 March 2014

ऐसा भी होता है....





हमारी पुस्तक शब्दों के पुलपढ़कर हमारी एक सम्मानित मित्र ने (जो हमसे फेसबुक के माध्यम से ही परिचित हैं और अब हमारी प्रिय बहन बन चुकी हैं) हमसे फोन पर अपनी सहज, स्वाभाविक प्रतिक्रिया एक विशिष्ट अंदाज़ में व्यक्त की ! हमें महसूस हुआ कि अपनी रचना के माध्यम से भी हम किसी से कितना जुड़ जाते हैं...हमें लगा कि हमारी पुस्तक 'शब्दों के पुल' ने हमारे बीच एक पुल बना दिया है...अदृश्य सा...अनजाना सा...अवर्णित सा....और हमने कुछ पंक्तियाँ उन पलों के लिए लिखी हैं......बताएं कैसी लगीं??
*****

नदिया की तरह
कल-कल, छल-छल करती हुई
आपकी आवाज़,
सिक्कों की तरह खनकती हुई
आपकी हँसी
अभी तक गूँज रही है
मेरे कानों में...

कितनी खुश थीं आप
आपकी ख़ुशी
फ़ोन से छलक कर
बाहर आ रही थी
ऐसा लग रहा था
की बस अब खुद ही
दौड़कर आने वाली हो मिलने

कितनी तल्लीनता से
उल्लेख कर रही थीं आप
एक-एक दृष्टांत
और कितनी उत्साहित थीं
वो सब वर्णित करते हुए...

सच कहूँ,
मुझे उस वक़्त
ऐसा लगा था
जैसे आप एक छोटी-सी
एक प्यारी-सी बच्ची बन गईं थीं
जो खुद में खोई
किए जा रही थी
अपने मन की बात
जिसका मन शीशे की तरह था निर्मल
और मन से निर्बाध बह रहे थे जज़्बात....

और इस तरह एकाएक ही
ईश्वर ने आपके रूप में
सहजता से सौंप दी थी हमें
एक प्यारी-सी बहन की
अमूल्य सौगात
*****

शुभ-संध्या




आपे में ही खो गया अब इतना यह संसार
धन्यवाद तक से नहीं व्यक्त करते लोग उदगार
करते लोग उद्गार ना करना किसी की इज़्ज़त जानें
दो तुम उनको इज़्ज़त तो वो खुदा खुद को मानें
कहें मुकेश कविरायना व्यर्थ में समय गंवाओ
ख़ुद पर रखो ध्यान अब ना दूजे पे निगाह गड़ाओ...





(चित्र गूगल से साभार)