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Wednesday, 24 July 2013

पिता



चुपचाप पीते रहे
तुम जीवन का गरल
भीतर ही भीतर
चलते रहे कितने ही युद्ध
पर तुम उनसे लडते हुए भी
बाहर से बने रहे सहज़ और सरल

ना तो किसी ने
रूचि ही ली देखने में
और तुमने भी
अपना अंतःकरण
सदा छिपाया
माँ का प्रेम तो इसीलिए
सर्वविदित है जग में
पर तुम्हारा प्रेम और त्याग
यहाँ कौन जान पाया?
जबकि हर आँधी में तुम
तनकर खडे रहे
विशाल वृक्ष बनकर
चुपचाप सहते रहे सब कुछ
निर्विकार, मौन रहकर
बीता जो भी मन पर

मुझमें है तुम्हारा अंश
मैं तुम्हारा ही प्रतिरूप
तुम्हारे अंश का विस्तार
करती हूँ शत्-शत् नमन्
हे पिता
                                                तुम्हें मैं बारम्बार!                   

10 comments:

  1. पिता सच ही ऐसा ही होता है ... सुंदर प्रस्तुति

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  2. Ek beti hi jan sakti hai ki pita ke bina zindgi kini adhuri hoti hai....yeh sabd to jaise aaj tak hmare dil mei hi re gaye the...pehli baar apki kavita ne woh daba hua pyaar aur yaadein shabdast kar di.....ati sundar....i am obliged and gifted today..Thank you so much.....

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    1. हार्दिक धन्यवाद मैडम, कविता ने आपको छुआ, हमारा श्रम सार्थक हुआ;-))

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  3. Ek beti hi jan sakti hai pita ke bina zindgi kitni adhuri hai....Sara pyaar aur yaadein jo itne sallo se hamare dil me dabi thi...aaj esa lagta hai...apne usko sabdo me dhal diya..I am obliged and thankful for this wonderful though and gift today....God Bless U

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    1. हार्दिक धन्यवाद मैडम, कविता ने आपको छुआ, हमारा श्रम सार्थक हुआ;-))

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  4. ये सच है की पिता बरगद होते हैं ... सभी को अपनी छाया में रखना होता है तो कभी ऊपर से कठोर भी दीखते हैं .. अपना दर्द अंदर अंदर पीते हैं क्योंकि वो मजबूत रहते हैं तो सब मजबूत रहते हैं ... अपने मन को, अपने त्याग को बाँट जो नहीं सकते ...
    पिता को समर्पित एक भावभीनी रचना ....

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    1. बिल्कुल सही कहा है आपने...पिता की भूमिका ही ऐसी होती है!अपने विचार साझा करने हेतु आपका हार्दिक आभार!!

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  5. पिता को नमन..

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    1. हार्दिक आभार पारुल जी;-))

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