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Sunday 28 April 2013






जरा ठहर अभी ओ अंतिम वसंत*

क्या कहूँ मैं तुमसे अपनी व्यथा
जीवन मेरा एक चिरंतन कथा

जीवन में नहीं आया कभी फ़ाग
वक्त गाता रहा वही आदिमराग

नहीं मिला कभी कोई कल्प-वृक्ष
अनुत्तरित रहे कितने ही प्रश्न-यक्ष

क्या याद करूँ मैं विगत प्यार
कितनी नावों में कितनी बार

दुःख मनुष्य को यूँ देता माँज
लगती मधुर भाद्रपद की साँझ

कंधे पर उठा इतिहास का शव
चलती रही सलीब से नाव तक

प्रकृति ने किए मुझसे ऐसे उपहास
मैं रही उत्तर और पूरब खिले पलाश

क्या कहूँ अब मैं कुछ विशेष
नहीं रहा कुछ अब शेष-अशेष

बिछुडे मुझसे मेरे पिता और माँ
सुख रहा कृष्ण-पक्ष की पूर्णिमा

हो जाए सभी कामनाओं का अंत
जरा ठहर अभी ओ अंतिम वसंत 

(*सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार और कवि श्री रवींद्र नाथ त्यागी की कुछ पुस्तकों के शीर्षकों को आधार बनाकर लिखी गयी कविता)

Monday 15 April 2013






जीवन एक मॉडर्न पेंटिग

जब कभी सोचा
मैंने एकांत में
जीवन मालूम
पड़ा मुझे
किसी मॉडर्न
पेंटिग की तरह
आड़ी-तिरछी लकीरें
एक सुंदर
पहेली के जैसा
जिसे सुलझाने में
शायद
बीत जाये उम्र
और फिर भी
शायद
जो ना सुलझे कभी ∙


(कविता संग्रह 'पानी पर लकीरें' से)

Saturday 13 April 2013






 पत्र की महिमा

एकाएक ही पुरानी डायरी में
रखा मिल गया एक पत्र
और ताजा हो उठी 
एक गुजरे जमाने की याद
कितना अच्छा लगता था 
जब हम करते थे 
डॉकिये की प्रतीक्षा
और भर उठते थे खुशी से 
जब डॉकिया लाता था पत्र 
हमारे प्रियजनों का

तुरंत होती थी उत्सुकता देखने की
कि कहाँ से आया है 
और किसका है ये पत्र
और फिर अगले ही पल 
खोलकर बैठ जाते थे पढने
और फिर पढते थे 
एक बार, दो बार...
ना जाने कितनी ही बार

कितना सुखद लगता था पत्र पढना 
उसमें एक अनजाना सा अपनापन था
आज भी जब पुराने पत्र 
रखे मिल जाते हैं
तो उन्हें पढने में
होती है एक सुखद अनुभूति
और जो आपको देती है आलंबन
जब कभी भी तलाश में हों 
आप  किसी सहारे के
किसी मानसिक संबल के

पत्र की यह विशेषता है कि 
पत्र लिखा तो एक बार जाता है
पर उसे कई बार 
पढने की स्वतंत्रता है 
और यह सुविधा भी 
कि रख लो उसे धरोहर के रूप में 
अपने पास सदा-सदा के लिये
और पढ लो किसी भी पल 
और कहीं भी 
जब कभी भी मन हो उदास 

अब नहीं आता डाँकिया
बंद हो गए हैं अब पत्र
अब तो सारा काम 
चल जाता है फोन से  
ई-मेल से, एस.एम.एस से
पर पत्रों की आत्मीयता और अपनापन 
ये सब कभी नहीं ले सकते.
 
(कविता संग्रह 'खिल उठे पलाश' से साभार)

Friday 5 April 2013




मेरी प्रार्थना...


हे प्रभु मुझे दुनिया का सबसे ज्यादा दृढ़ आधार वाला

                                       परन्तु अस्थिर व्यक्ति बनाना

क्योंकि अस्थिरता परिवर्तन लाती है

                                 और परिवर्तन जीवन का आधार है


हे प्रभु मुझे दुनिया का सबसे ज्यादा दृढ़ आंतरिक शक्ति वाला

                                        परन्तु कोमल व्यक्ति बनाना
क्योंकि  कोमलता ही संवेदनशीलता  लाती है

                                 और संवेदनशीलता ही मानवता है


हे प्रभु मुझे दुनिया का सबसे ज्यादा मूक  

                               परन्तु अत्यंत निष्कपट व्यक्ति बनाना

क्योंकि  निष्कपटता ही हमें ईश्वर से मिलाती है

                                        और ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है


हे प्रभु मुझे दुनिया का सबसे ज्यादा अधार्मिक

                             परन्तु सशक्त आस्थावान व्यक्ति बनाना

क्योंकि आस्था से प्रार्थना उपजती है

                          और प्रार्थना ही परमात्मा तक पहुंचाती है

                                —मूल अंग्रेजी में: डा. तृष्णा पटेल
                                  हिंदी में अनुवाद: डा. सारिका मुकेश 

Wednesday 3 April 2013





यह सच है......क्योंकि...

यह सच है कि हम दोनों ने एक दूसरे से कभी बातचीत नहीं की
              क्योंकि शायद हम कभी मूक नहीं थे 
यह सच है कि हमने कभी एक दूसरे के ह्रदय में नहीं देखा
              क्योंकि शायद हमारी आँखे हमेशा खुली रहीं
यह सच है कि हम दोनों कभी एक दूसरे के निकट न आ सके
              क्योंकि शायद हम एक दूसरे से जुदा कभी नहीं रहे
यह सच है कि हम दोनों ने एक दूसरे को कभी आलिंगन नहीं किया
              क्योंकि शायद हमारी ऊष्मा कभी कम नहीं हुई
यह सच है कि हम कभी भी बहुत घनिष्ठ नहीं रहे  
              क्योंकि शायद हम कभी एक दूसरे से अलग नहीं थे
यह सच है कि हमने एक दूसरे को दुःख पहुँचाया
              क्योंकि शायद हम एक दूसरे परिपक्व बनाना चाहते थे
यह सच है कि हमने एक दूसरे को कभी प्रेम नहीं किया
              क्योंकि शायद हम युगों-युगों से प्रेमी थे
यह सच है कि हम कभी एक दूसरे से नहीं मिलेंगे
              क्योंकि शायद हम कभी एक दूसरे से दूर हैं ही नहीं...


                             —मूल अंग्रेजी में: डा. तृष्णा पटेल
                              हिंदी में अनुवादडा. सारिका मुकेश 

Tuesday 2 April 2013



हमारी नितांत आत्मीय डा. तृष्णा पटेल ने आज जब अपनी यह कविता हमें पढ़वाई तो हमने सोचा कि क्यों ना इसे आप सभी से भी साझा कर लिया जाए...आपकी प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा रहेगी...
सादर/सप्रेम
डा.सारिका मुकेश 



किसी ने देखा कहाँ?

उगते हुए सूरज के पीछे,
                  डूबते हुए चन्द्रमा को किसी ने  देखा कहाँ?
गहरे शक्ति सागर के अन्दर,
                  उठते हुए तूफान को किसी ने देखा कहाँ?
ठन्डी पड़ी राख के भीतर,
                  दहकते हुए अँगारों को किसी ने देखा कहाँ?
ऊँची-ऊँची इमारतों के नीचे,
                 दबी हुई ईंट को किसी ने देखा कहाँ?
हरी-भरी वादियों के बीच,
                 कुछ मुर्झाए हुए फूलों को किसी ने देखा कहाँ?
अंधेरी रातों के चिलमन में,
                 प्यासे जागते  चकोर को किसी ने देखा कहाँ?
जिंदगी की इस तेज रप्तार में,
                 किसी ने किसी को पलटकर देखा कहाँ?
नित्य नए संबंधों की भीड़ में,
                 किसी ने किसी को छोड़कर फिर देखा कहाँ?
मुस्कुराते हुए आँचल के पीछे,
                 अश्कों भरा दामन किसी ने देखा कहाँ?
डूबती हुई निगाहों में,
                 टूटते हुए सपनों को किसी ने देखा कहाँ?
हँसती-खेलती जिंदगी के पीछे,
                 जालिम मौत को किसी ने देखा कहाँ?

                                     —डा. तृष्णा पटेल